30 दिसंबर, 2010

… वो अधूरे सपने

सपनों के लम्हों को आज हम संवारने चले,
उस बेजान-बंजर जमीं पर बहार उगाने चले हैं।
ये जानते हैं हम कि मौसम है “पतझड़” का,
फिर भी उम्मीदों का बसंत बसाने चले हैं।।
मालूम हैं हकीकत से दूर खड़े हैं वो,
फिर भी अरमानों का बाजार सजाने चले हैं।

पलभर का भी साथ ना मिला उस “हमसफर” का,
और हम जिंदगी को उनके साथ बिताने चले हैं।।
इन राहों पर उलझे फैसलों को हम सुलझाने चले,
सच को जानते ही नहीं और झूठ को सच बनाने चले हैं।
जिंदगी के सफर में छूटे सपनों के इस ” कारवां ” को,
आज हम फिर संभालकर सुंदर सच बनाने चले हैं।।

25 दिसंबर, 2010

साल 2010 की यादें

देख, टाॅपिक ‘साल 2010 की यादे’,
मन में उठने लगे यादों के ख्याल।
और धीरे-धीरे खंगालने लगी मै,
2010 की प्यारी-सुनहरी याद।।



जब मैंने गुजरे वक्त के गर्भ में,
डाले अपने दोनों हाथ।
तो, साल 2010 में संग रहा,
अच्छे-बुरे परिणामों का साथ।।



साल के शुरू में बनते रहे,
शिक्षा और निरक्षरता पर विचार।
तो कभी खुद हमने छीन लिए,
बच्चों से पढ़ने के अधिकार।।



देख 2010 में देश की,
गरीबी की हालत-हलाल।
इस साल भी कतई नहीं,
बदले इनके दर्दनाक हाल।।



कसाब बना रहा देश का दामाद,
रामजन्म भूमि मंे लड़ते रहे।
जन्म अधिकार व स्वमित्व के लिए,
अब भी अनसुलझे है ये दोनों विचार।।



कभी सड़कों पर नोची गई,
किसी लाड़ली की लाज।
तो कहीं ढकोसलों में सजता रहा,
अमीरों का दिखावटी समाज।।



लूट-पाट के इस साल में,
बेजान हुए हाथ और हथियार।
तो कभी इन्हीं हाथ-हथियार से,
होता रहा बेकसूरों पर अत्याचार।।



गुजरे साल में जहां सानिया की,
शादी बनी अफवाहों का बाजार।
तो वहीं रूचिका को नहीं मिला,
बरसों पुराना अधूरा न्याय।।



हर साल की तरह सूखे ने,
लील लिए किसानों के प्राण।
तो कहीं बाढ़ में डूब गए,
सारे के सारे सुनहरे अरमान।।



बीमार और कुपोषित तन में,
ना बची कोई सेहत की आस।
फिर भी नाज करते रहे हम,
कि देश हमारा है सबसे खास।।



कभी काॅमनवेल्थ तो कभी,
सालभर रहा त्यौहारों का अंबार।
और इन्हीं के साथ रहे,
होनी-अनहोनी के आसार।।



इस साल भी लाखों टन अनाज,
चढ़ा लापरवाही की खाट।
और इसी कारण भूखे-मजबूर किसान,
चढ़ते रहे लकड़ियों पर बनकर लाश।।



इस साल फिर बन गई बिहार में,
नीतिश की दमदार दोबारा सरकार।
संसद नहीं चली घोटालों के कारण,
और धनहानि होती रही बार-बार।।



इस साल भी फिल्मी दुनिया में,
चलता रहा मनोरंजन का राज।
इसी वजह से जल्दी हो गई,
मुन्नी बदनाम और शीला जवान।।



बस... गुजरे हर साल की तरह,
समान लगा मुझे ये साल।
और अब मुझे इंतजार है ठंडे-सुहाने,
‘शुभकामनाओं पूर्ण’ 2011 का अगाज।।

                                              अंजू सिंह (नोएडा)

16 दिसंबर, 2010

आखिर क्या है औरत ?


कभी समाज के दरमियान से झांकती है औरत,
कभी अपने आप को समाज से आंकती है औरत,
कभी रीति-रिवाजों की जंजीरों को तोडती है औरत,
तो कभी अपनी मर्यादा को खुद छोडती है औरत…
कभी परायों के बीच में तड़पती है औरत,
कभी दुखों में दिन-रात सिसकती है औरत,
कभी मुस्कराहट बन कर खिलती है औरत,
तो कभी असभ्यता के धूप में झुलसती है औरत…

कभी नये जीवन की संस्कार है औरत,
कभी संतान के लिए अहम् विचारक हैं औरत,
कभी गुणों और सभ्यता की धारक हैं औरत,
तो कभी हर दुखों की दर्द निवारक हैं औरत…
कभी घर-परिवार का समर्पण है औरत,
कभी अपने आप को ही अर्पण है औरत,
कभी गृह लक्ष्मी तो कभी अन्नपूर्णा है औरत,
सच है कि इस संसार मे पूर्ण है औरत…
anju singh

09 दिसंबर, 2010

गरीब की हांडी में भी ‘घोटाला’

घोटाला. घोटाला.. और घोटाला...! भारतीय होने के नाते यह कहना बड़ा अफसोस भरा है कि भारत की कार्यनीति और राजनीति का घोटाले सबसे ज्यादा आम व गरीब जनता की मुश्किलें बढ़ता है। अभी 2जी-स्पैक्ट्रस मामले पर संसद में गर्मी खत्म नहीं हुई है कि उत्तर प्रदेश में एक और बड़ा खाद्यान घोटाला सामने खड़ा हुआ है। अब देश के सबसे बड़े खाद्यान्न घोटोले में उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने मामले की जांच कर रही सीबीआई को छह महीने की मोहलत देने के साथ उत्तर प्रदेश को भ्रष्टतम प्रदेश करार दिया। इस अनाज घोटाले में पीडीएस पर गरीबों में अनाज न बांटकर उसको बांग्लादेश और नेपाल को बेच देने का आरोप है। दरअसल, 2003 से 2007 के बीच उत्तर प्रदेश के कई जिलों से हजारों टन अनाज जो करीब 3000 करोड़ का था, उसे अवैध रूप से बेच दिया गया था। सूत्रों के अनुसार, घोटालें की इस हांडी में उत्तर प्रदेश के कई नेता और बाबूओं ने जमकर करछी चलाई। उन्होंने गरीबों के पेट पर लात मार कर अनाज को बाहर बेच दिया और भूखी जनता को भूख से तड़पने पर मजबूर कर दिया। 3000 करोड़ के इस खाद्यान्न घोटाले के रोशनी में आने के बाद अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले की सीबीआई से जांच के आदेश दिए हैं। ताकि इस घोटाले में शामिल उत्तर प्रदेश के नेताओं, बाबूओं और कारोबारियों की तिकड़ी पर लगाम कसी जा सके। वैसे, कहने को सीबीआई एक स्वतंत्र संस्था है लेकिन सीबीआई में राजनीतिक घुसपैठ ने इसे भी राजनीति की तरह भ्रष्ट बना दिया है। बहरहाल उच्च न्यायालय द्वारा खाद्यान घोटाले में संज्ञान लिए जाने के बाद कहीं न कहीं यह उम्मीद जगी है कि इस मामले पर से पर्दा जल्द उठेगा और घोटाले में शामिल अधिकारी और राजनेता बेनकाब होंगे। ये तो है अनाज घोटाले की बात जिस पर कानून कार्यवाही कर रहा है,  मगर एक अलग मामला ये भी है कि इस तरह की घपलेबाजी से अलग भी हर साल करोड़ो-लाखों टन अनाज लापवाही की भेंट चढ़ जाता है। इसी साल एक के बाद एक अनाज सड़ने के बहुत बड़े आंकड़े सामने आए हैं। थोड़ा हो-हल्ला होने के बाद अब यह मामला भी लगभग ठंडा ही हो गया। सवाल बनता है कि 2003 से 2007 में करोडों़ टन अनाज को अवैध रूप से बेचने वालों पर लगाम कसना जरूरी है, लेकिन साल दर साल लाखों टन अनाज जो सड़ जाता है उसपर भी ठोस कार्यवाही की जानी चाहिए। खरबूजा देख खरबूजा रंग बदलता है! मतलब देश में या तो अवैध रूप से नेता अपनी जेब भरते हैं और अगर ऐसा नहीं कर सकते तो हर व्यवस्था को राम भरोसे छोड़ देते हैं। वो भी इतनी सफाई से कि किसी को गंदगी महसूस ना हो। ऐसे कारनामों का ही नतीजा है कि करोड़ों की भूख को शांत करने वाला अनाज मौसम, लापरवाही और जगह की कमी के कारण सड़ा दिया जाता हैं। नहीं तो बाहरी बाजार में बेच दिया जाता है।

अनाज है भूरपूर फिर भी भूखे सबसे ज्यादा
भारत कृषि प्रधान देश है यह आप और हम जानते है। देश में जिस बड़े स्तर पर कृषि होती है, उसके बराबर का स्तर भारत में भूखों का भी हैं। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार भारत में भूख की समस्या चिंताजनक स्तर तक पहुंच गई है। यहां तक भारत की स्थिति अफ्रीका के अति भूखे 25 देशों से भी बद्तर है। भूख और अपर्याप्त भोजन की वजह से भारतीय बच्चों में कुपोषण और 5 साल से कम उम्र की बाल मृत्यु 50 प्रतिशत है। महिलाओं भी शारीरिक रूप से कमजोर पाई जाती है।  गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, असमान विकास की उपर्युक्त स्थितियां भी ऐसे घोटालों और अव्यवस्थाओं का ही नतीजा हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में औसत से अधिक अनाज उपलब्ध रहता है, करोड़ों टन अनाज आगामी सालों के लिए सुरक्षित किया जाता है ताकि आने वाले समय में देश में कोई भूखा न रहे। मगर ऐसा होता नहीं है जानकार हैरानी होगी की रोज देश की 25 करोड़ गरीब जनता भूखे पेट सोती है। आम लोगों से जुड़े मामले भी संसद में टिक नहीं पाते हैं। संसद मे भी जिन मामलों से पक्ष-विपक्षी पार्टियों को घेरा जा सकता है उनकों ही जस का तस रखा जाता है। सरकार के पहरेदारों को देश की भूख और भूखी गरीब जनता के मुद्दों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए इस देश मंे भूखी गरीब जनता के हालत कभी नहीं सुधरे और ना ही कभी सुधरेंगे!

शिक्षा-मंदिर में गरीबों का जाना क्यों है ‘वर्जित’?

नन्हें हाथों में कलम का जादू दिखाई देता, अपने नौनिहालों को पढ़ते लिखते देख मन खुश तो होता होगा! भविष्य की बुनियाद में शिक्षा रूपी सीमंेट, पत्थर, रेता और पानी के महत्व को भला कौन नहीं जानता। कहने को तो ‘‘अनपढ़ों का जीवन भी हो जाता है सार्थक, मगर उस सार्थकता को आसान डगर खुद अनपढ़ कह नहीं सकता।’’ शिक्षा का दर्पण जहां भविष्य की उज्जवल छवि को दिखाता है वहीं अशिक्षा का पर्दा उन छवियों को छिपाने में बेहद कामयाब होता है। हम बात कर रहे है ‘शिक्षा’ की। दरअसल बात ये है कि हाल ही में डाॅयचे बैंक की एक रिपोर्ट सामने क्या आई कि मन में शिक्षा के जुड़े सवाल उठने लगे। रिपोर्ट का कथन था कि अगले दो दशकों में भारत में काम करने वाली आबादी में 24 करोड़ की बढ़ोतरी हो जाएगी। जो कि ब्रिटेन की कुल आबादी का चार गुना है। यानि ब्रिटेन की कुल आबादी से चार गुना ज्यादा हमारे देश में काम करने वाले यानि नौकरीपेशा होंगे। लेकिन एशियन डेवलपमेंट बैंक के प्रबंध निदेशक का कहना है कि शिक्षा के बिना इस आबादी का यह लाभ नहीं उठा सकते हैं। और यह सच भी है आप और हम इस बात का अंदाजा सहज लगा सकते हैं कि करीब 120 करोड़ की आबादी वाले देश में अगर धीमी गति की शिक्षा हो तो देश का क्या होगा! देश के विकास का क्या होगा! देश की नई पीढ़ी का क्या होगा! आंकड़े बताते हैं कि देश की करीब 70 से 80 प्रतिशत आबादी आज भी 20 से 25 रूपए में अपना गुजारा करती है। ऐसे में मूल जरूरतों को काट-काट कर पूरा किया जाता है, तो गरीब परिवार अपने बच्चों को शिक्षा कैसे दिलाएं? इसी का परिणाम है कि राष्ट्रीय आर्थिक विकास से वंचित गरीब व पिछड़े इलाकों में भी शिक्षा ना के बराबर है। वैसे भारत में कामगरों की उम्र 15 साल से शुरू हो जाती है, मगर सच्चाई तो यह है कि 15 से काफी कम उम्र के बच्चे को बहुत आसानी से काम करते हुए देखा जा सकता है। तो इस नजरिए से देश का विकास होना निश्चित है और शिक्षाविदों को चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। मगर हां, अगर बात देश में निरक्षरता को दूर करने की है तो इस मुद्दें को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। क्योंकि ये हमें निर्धारित करना है कि हमारी देश की भावी पीढ़ी ‘नौकरी’ करेगी या ‘गुलामी’? क्योंकि भारत की 120 करोड़ आबादी की आधी आबादी 25 साल से कम की है। 2035 तक भारत की आबादी 150 करोड़ होगी और उसमें कामकाजी प्रतिशत आबादी 65 फीसदी होगी। लेकिन भारत को इस आबादी का लाभ तभी मिलेगा जब देश के भावी पीढ़ी को बुनियादी रूप से मजबूत शिक्षा दी जाए, उसके प्रशिक्षित किया जाना बहुत बड़ी चुनौती है। जिसमें खुद विशेषज्ञों का भी कहना है कि भारत इसमें मामले में बहुत पीछे छूट रहा है। इसी साल अप्रैल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून पास किया है। लेकिन इस पर अमल के लिए स्कूलों और शिक्षकों का अभाव है। इस कानून पर अमल के लिए 12 लाख शिक्षकों की जरूरत है लेकिन इस समय भारत में सिर्फ 7 लाख शिक्षक हैं और उनमें भी 25 फीसदी काम पर नहीं जाते। भारत में साक्षरता दर 65 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह 91 प्रतिशत और यहां तक कि केन्या में 85 प्रतिशत है। एक रिपोर्ट के अनुसार, स्कूल में भर्ती होने वाले बच्चों में से 39 फीसदी 10 की उम्र में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और 15 से 19 की आयु के किशोरों में सिर्फ 2 फीसदी का व्यावसायिक प्रशिक्षण मिलता है। सूत्रों के अनुसार, हमारी सबसे बड़ी चुनौती स्कूल के स्तर पर है। देश में डाॅप आउट दर बहुत ऊंची है। लेकिन जो स्कूल पास कर जाते हैं, उन्हें ऊंची शिक्षा के कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरना होता है। श्ेिाक्षा के मुद्दे पर भारत के शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल का मानना है कि ‘‘2020 तक हाई स्कूल पास करने वाले बच्चों की संख्या इस समय के 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए सैकड़ों नए काॅलेज और विश्वविद्यालय बनाने होंगे। इस मांग को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस बनाने की अनुमति देने वाले कानून का मसौदा तैयार किया है।’’

अब सोचने वाली बात यह है कि आजादी के छह दशके के दौरान शिक्षा के विकास पर मसौदा का चलन बहुत ज्यादा रहा है। एक और सरकार है कि निरक्षरता को दूर करने के दावे करती है, वहीं दूसरी ओर धीमी कार्यनीति इन दांवों को पूरा होने से पहले ही दम तोड़ने पर मजबूर कर देती है। देश में जनसंख्या, गरीबी और अशिक्षा तो तेजी से बढ़ रही है, लेकिन सरकारी तौर स्कूल, काॅलेज उतनी तेजी से नहीं बढ़ पा रहे हैं। गैर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर के स्कूल और काॅलेज की बात करें तो उनमें देश की उस 80 प्रतिशत आबादी का भला कैसे हो सकता जो मात्र 20 रूपए की दैनिक आय पर जी रही है। अगर आसान शब्दों में शिक्षा के मुद्दों पर कुछ सटीक कहना हो तो कह सकते हैं

कि ‘‘एक तो देश शिक्षा में था ‘गरीब’, उस पर भी शिक्षा बहुत ‘महंगी’ हो गई।

     गरीब ‘कैसे’ जाएं स्कूल-काॅलेज, जब शिक्षा-देवी ही इनसे ‘रूठ’ गई।।

07 दिसंबर, 2010

ये है घोटाले के पेट में विकसित होता ‘भारत’

हम भारत की विविधता के कारण जाने जाते हैं, ढेरों भाषाएं व भिन्न-भिन्न संस्कृति के रंग भारतीयता की पहचान है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत एक ऐसा उभरता पूंजीवादी देश है, जहां पर विकास की संभावनाएं अपार है। और शायद इसीलिए हर देश भारत को अपने सांचे में उतरना चाहता है। हाल ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का आना और भारी-भरकम नौकरी का प्रलोभन देकर अपना काम करके चलते बने। अब आए हैं फ्रांस के राष्ट्रपति निकोल सरकोजी। उन्होंने भी कहीं न कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था का फायदा उठाने का मूड बनाया ही होगा। वैसे, यह भारत का वह एक तरफा पहलू है जिसे अन्य शक्तिशाली देश लाभ लेना चाहते हैं, मगर इसका दूसरा पहलू तो खुद भारत को सवालों के घिरे में खड़ा करता है। भारत भ्रष्टाचार के मामले में अन्य देशों से काफी आगे है। कुछ सालों में घोटालों की कई पोल खुली है कि समझ नहीं आ रहा कि पहले किसको समझे! आम नजरिए के अनुसार, सभी घोटालों का घालमेल भारतीय ‘राजनीति की घोटालेबाजी’ की ओर भी इशारा कर रही है। सबसे ताजा घोटाले के तौर पर 2 जी स्पैक्ट्रस घोटाला। जिसके कारण केंद्र सरकार सवालों के घेरे में खड़ी है। आए दिन विपक्षी पार्टियों केंद्र पर दबाव बनाने के हथकंडे अपना रही है। पर क्या आप को पता है कि ‘2 स्पैक्ट्रम घोटाले में 39 अरब के घोटाले की बात सामने आ रही है, मगर इस नुकसान से अलग संसद, सरकार और देश की आर्थिक स्थिति को नुकसान हो रहा है, उसका क्या होगा? ’ क्योंकि 9 नवंबर संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो चुका है और अब तक 16 संसद सभा हो जानी चाहिए थी, मतलब देश के अन्य गंभीर मुद्दों व समस्याओं के निवारण के लिए संसद में उठाना चाहिए था। लेकिन अफसोस है कि संसद की कार्यवाही में 2 स्पैक्ट्रम घोटाला आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा है। दरअसल, विपक्षी पार्टियांे ने केंद्र पर इस समय जो दबाव 2 स्पैक्ट्रम घोटाले के कारण बनाया है, उसे वह बिना नतीजा नहीं जाने देना चाहती है। चाहे फिर इसके लिए कितना भी नुकसान क्यों ना हो?

   अब बात अगर संसद की कार्यवाही के दौरान खर्च की जाए तो पता चलता है कि संसद की प्रति बैठक का खर्च करीब 8 करोड़ बैठता है। और हिसाब लगाया जाए तो 16 बैठकों का खर्च अनुमानित 1 अरब से ज्यादा होना चाहिए। अब सांसदों और विपक्षी पार्टियों को कौन समझाएं कि जिस तरह से संसद की कार्यवाही नहीं होने के कारण प्रति बैठक नुकसान हो रहा है इसको भी तो ‘इनका मिश्रित घोटाला’ कहा जा सकता है। केंद्र के विपक्ष में खड़ी पार्टियों को पार्टी हित से अलग आम लोगों व देश से जुड़ी अन्य समस्याआंे पर ध्यान देना चाहिए। खैर, इनको समझाना बेकार है, क्योंकि घोटालों की गंदगी साफ करने की कोशिश में यह भी देश व देश की आम जनता के साथ उनकी मांगों और समस्याओं का घोटाला कर रहे है।
अगर हम थोड़ा सोचे और घोटालों के पन्ने पलटे तो पता चलेगा कि देश में जल्दी जल्दी कई घोटाले हुए है पर अभी तक कोई भी निर्णयक स्थिति में नहीं है। जैसे-
2जी स्पैक्ट्रम का आवंटन घोटाला - जिसमें 39 अरब का नुकसान हुआ। इस घोटाले पर लम्बे समय तक पर्दा डालने का प्रयास किया गया। आखिर में भारी दबाव के चलते संचार मंत्री ए. राजा से त्यागपत्र मांगा गया और केंद्र को भी आड़े हाथों लेने की विपक्ष की तैयारी जोरो पर है।
हाउसिंग लोन घोटाला - एक वर्ष की जाँच के बाद सीबीआई ने एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के प्रमुख सहित आठ लोगों को गिरफ्तार किया। जिसमें कई नामी बैंकों के शीर्ष पदाधिकारियों पर शिकांजा कसा जा रहा है। अनुमान है कि यह घोटाला कई हजार करोड का हो सकता है।
कॉमनवेल्थ खेल घोटाला - हाल फिलहाल ही तो दिल्ली काॅमनवेल्थ का भूत उतरा है। मगर इसके साथ अन्य कई घोटालों के दानव खड़े हो गए हैं। निर्माण कार्यों में अवांछित देरी और अनाप शनाप खर्चों ने भारतीय ऑलम्पिक संघ, दिल्ली सरकार, दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली नगर निगम सहित केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय को भी कठघरे में खड़ा किया। बजट से कहीं ज्यादा खर्च करने के घोटाले में सीबीआई जांच कर रही है।
आदर्श सोसाइटी घोटाला - कारगिल के शहीदों के परिवारवालों के लिए बनी इस सोसाइटी पर कांग्रेस पार्टी के नेताओं, बाबुओं और सेना के ऊपरी अधिकारियों ने कब्जा कर लिया। स्वयं मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण इस घोटाले में फंस गए और उन्हें इस्तीफा देना पडा। यह सोसाइटी मुम्बई के एक सबसे महंगे इलाके में बनी है। यह इमारत कई अन्य विवादों में भी फंसी है। आरोप है कि बिल्डर ने पर्यावरण संबंधित तथा जमीन संबंधित कानूनों पर ध्यान नहीं दिया।
सत्यम घोटाला - सत्यम घोटाले से भला कौन परिचित नहीं है कि सत्यम कम्प्यूटर्स के संस्थापक रामलिंग राजू की चिट्टी से ऐसा भूचाल आया कि शेयर मार्किट भी औंधे मुंह गिर पड़ा। दरअसल, उन्होनें लिखा कि किस तरह से वर्षों तक कम्पनी ने लाभ अर्जित करने के झूठे आँकडे दिखाए। 1 बिलियन के लगभग इस घोटाले को भारत का एनरोन भी कहा जाता है ।
हर्षद मेहता घोटाला - 1992 में बोम्बे स्टोक एक्सेंज में तूफान सा आ गया था। संसेक्स तेजी से ऊपर चढ रहा था। परंतु पर्दे के पीछे का खेल कुछ और ही था। कई भारतीय शेयर दलालों ने इंटर बैंक ट्रांसेक्शन के साथ बाजार को उफान पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें कई देशी और विदेशी बैंकें, बाबु और नेता भी शामिल थे। जब इस घोटाले से पर्दा उठा तो दो महिने के भीतर बाजार 40। तक गिर गया और लोगों के लाखों-करोड़ों रूप डूब गए।
बोफोर्स तोप घोटाला- भारत ने जब स्वीडन से बोफोर्स तोप खरीदी तब आरोप लगा कि इस तोप को खरीदने के लिए दबाव बनाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नजदीकी लोगों को रिश्वत दी गई थी। इस घोटाले की वजह से कांग्रेस का विभाजन हुआ और 1989 के आम चुनावों में पार्टी की हार हुई। यह केस वर्षों से चल रहा है और शायद वास्तविकता कभी सामने ना आ पाए।
  तो ये अपने विकासशील देश का दूसरा पहलू। जो घोटालों और भ्रष्टाचार के पूरी तरह लैस है। देश और आम लोगों का पैसा घोटाले के बड़े पेट में समा गया। निराशा है कि जिस देश की विकासशीलता के दावे विश्व करता है, वहां पर घोटाले व भ्रष्टाचार के ऐसे जाल बिछे है जिन्हें अभी तक काटा नहीं गया है। अगर साधारण शब्दों में कहा जाए तो सिर्फ इतना काफी है कि अब देश में घोटाला नहीं बल्कि घोटाले में देश है और इसे से ये प्रदर्शित होता है कि ‘ ये है घोटाले के पेट में विकसित होता भारत।’ सरकारी और गैरसरकारी घोटालों से भरपूर देश की ये एक भयानक छवि है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

मुआवजे की आस ताकते भोपाल गैस पीड़ित

साल दर साल बीते गए और बीते 2-3 दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी की 26वीं बरसी की झलक भी अखबारों में और न्यूज चैनलों में देखी गई। कहने को तो... इस गैस त्रासदी को 26 साल हो चुके हैं, मगर पीड़ितों को उनका हक और हर्जाना देने के नाम पर आज भी रस्मादागी ही चल रही है। देश की सबसे बड़ी इस गैस त्रासदी पर गैस पीड़ितों ने तो अमेरिका से लेकर भारत और मध्य प्रदेश सरकार को जमकर कोसा। ‘‘वैसे गैस कांड पीड़ित इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते हैं। इन पीड़ितों को शायद यह पता नहीं कि वो कोई देश के सांसद नहीं है, जो संसद में हंगामा करें और अपनी उस पीड़ा का हर्जाना ले सके, जो वो और उनकी नई पीढ़ी शारीरिक विकलंागता के रूप में झेल रही है।’’ 26 सालों से लगातार अपने हक की लड़ाई लड़ने और गैस कांड के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को सजा दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं। बेशक देश और सरकार भूल जाए, लेकिन भोपाल कैसे भूल सकता है 26 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जो जहरीली गैस रिसी उसने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया था और वहीं हजारों लोग जहरीली गैस से उत्पन्न बीमारियों से जूझने को विवश हैं।

आखिर कब दिया जाएगा मुआवजा?
   कम नहीं होते 26 साल। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी अगर सरकार मुआवजा राशि देने पर विचार विमर्श करें तो यह बेहद शर्म की बात है कि जिस गैस कांड में 5000 हजार से ज्यादा की जान गई, हजारों बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाएं विकलांग हुई और अभी तक बस इनके नासूर बने जख्मों पर मरहम लगाने की तैयारी चल रही है। आखिर ये कैसी सरकारनीति है? 1984 में इस कांड के लिए मुआवजे को 750 करोड़ रूपए थी, पता नहीं उसमें से कितना मुआवजे के नाम पर पीड़ितों में बाताशे तरह दिया गया है। मतलब मुआवजा भीख की तरह जिन हाथों में दिया गया उनमें पीड़ितों के हाथ भी कम थे। अब केंद्र सरकार गैस कांड पीड़ितों के लिए मुआवजा दुगुना करने की मांग की जा रही है, मगर इसे ‘जले पर नमक झिड़काना’ कहा जाता है। एक तो इन ढाई दशकों में मुआवजा पीड़ितों तक कट-छटकर पहुंचा है, स्वास्थ्य सुविधएं भी बीमार दी गई है वहां पर अगर मुआवजा दुगुना करने की बात आए तो इसे सिर्फ इसी कहावत के आंका जा सकता है। बेशक, भारत सरकार द्वारा इस भयावह गैस कांड के पीड़ितों के लिए मुआवजे की दुगुना रकम बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं। मगर इस पर आम लोगों और गैस कांड पीड़ितों को विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है।
            खैर, भोपाल गैस कांड की इस 26 साल पुरानी भयावह त्रासदी के बाद भी गैस पीड़ितों को अफसोस, गुस्सा और उम्मीद तीनों ही है। जहां उन्हें अफसोस है कि देश में इतनी बड़ी दुर्घटना होने के समय से लेकर अब तक कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया, जिससे पीड़ितों को राहत मिली हो, बोलवचन और जबानी महरम के साथ कुछ मुआवजा बांट कर जिम्मेदारी पूरी कर दी गई है। जबकि गुस्सा है कि इस त्रासदी के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी ‘वारेन एंडरसन’ को सजा न मिलने की और उम्मीद है कि देर से सही लेकिन सरकार भोपाल गैस पीड़ितों रहमत कर उन्हें राहत दे। शारीरिक रूप से बेकर हो चुके गैस पीड़ितों में अभी भी मुआवजे की आस बरकरार हैं।

राजनीति में ‘दलाल’ और ‘जेल’ का ये कैसा बोलबाला?



सपा (समाजवादी पार्टी) में एक बार फिर से आजम खान की वापसी क्या हुई कि मानों अमर सिंह की दुःखती रग पर हाथ रख दिया हो। दर्द की पीड़ा भी ऐसी हुई कि अमर सिंह ने ‘सपा के नेताओं को जेल का रास्ता भी बता दिया।’ दरअसल,  मामला ये है कि पहले तो अमर सिंह ने खुद के लिए ‘दलाल’ जैसे उपाधि झेली और अब सपा में आजम खान की ‘री-एंट्री’ से वह तिलमाला गए हैं। जिसके चलते अमर सिंह ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और अभी-अभी समाजवादी पार्टी में दुबारा आगमन करने वाले आजम खान को भी सचेत करने का प्रयास किया और कहा कि ‘‘अगर मैंने मुंह खोला तो सपा के कई नेता जेल में होंगे’’। वैसे अमर सिंह द्वारा इस प्रकार की टिप्पणी करना कितना जायज है, ये अमर सिंह का अपना नीजि व राजनीतिक मुद्दा है। क्योंकि आजम खान और अमर सिंह के आपसी मतभेद के कारण ही पहले आजम खान पार्टी से गए और बाद में अमर सिंह भी पार्टी से निष्कासित कर दिए गए थे। मगर अब हवाओं का रूख बदल चुका है और डेढ़ साल के बाद सपा आजम खान का ‘मोस्ट-वेलकम’ कर रही है।
       वैसे अमर सिंह ने 14 साल सपा को अपनी सेवाएं दी है, इसी भावना के साथ उनको यह पता होना चाहिए कि आज सपा की हालत पतली है और भविष्य में सपा को मुस्लिम वोटों का भी टोटा पड़ सकता है। इसी टोटे की भारपाई करने के लिए आजम खान का मान-मनोहार कर सपा ने उन्हें पार्टी में फिर से शामिल किया है। लम्बे समय से आपसी तानातनी में अमर सिंह और आजम खान के बीच जबानी जंग चल रही है। अपने आप को ‘दलाल’ सुने जाने पर अमर सिंह का कहना है कि ‘‘ मैं 14 साल तक मुलायम सिंह की बैसाखी रहा हूं। अगर मैंने मुंह खोला तो सपा के कई नेता जेल की सलाखों के पीछे होंगे और आजम खान को अपने नेता यानि मुलायम सिंह से पूछना चाहिए कि 14 सालों में मैंने कितनी सप्लाई की।’’ अमर सिंह का अपने बचाव में यह बयान देना कुछ हद तक सही कहा जा सकता है। मगर ‘मुह खुला तो सपा के कई नेता जेल की सलाखों के पीछे होंगे’ वाला बयान इनके लिए परेशानी की वजह बन सकता है, क्योंकि एक पार्टी से 14 साल जुड़े होने बाद अगर वो अपने पास सपा नेताओं को जेल भेजने की वजह रखते हैं, तो कहीं ना कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से उन  कारणों में शामिल भी जरूर रहे होंगे और अगर शामिल नहीं है तो चुप क्यों हैं! जनता और पार्टी के हितों से दूर होकर उन्होंने भला क्यों उन नेताओं को बख्श रहा है जिन्हें उनके ही अनुसार, जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए! वैसे इस समय अमर सिंह उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर लोकमंच के अध्यक्ष हैं।

खैर, अब सोचनीय मुद्दा है कि राजनीतिक पखवाड़े में जबानी जंग में इस तरह के बयान आम हो गए है और आम लोग भी इस तरह की बयानबाजी से वाकिफ हो रहे हैं। बात सिर्फ गलत शब्दों के इस्तेलाल की नहीं बल्कि राजनीति के प्रति निष्ठा और कर्मठता पर सवालिया निशान भी है कि ‘‘जब तक जिस पार्टी में रहो तो, तब तक मुंह में मिश्री को दबाए रखो और जैसे ही पार्टी से अलग हो तो करेला चबाने लगो।’’ जहां एक ओर इस तरह के बयान राजनीति बहस में बदलते देर नहीं लगती है वहीं विपक्षी पार्टियों व आम लोगों का भी ध्यान आकर्षित करती है। मगर अब लगता है कि पार्टी-पार्टी और नेता-नेता की जंग में इस तरह की भाषा का प्रयोग राजनीतिक एजंेडा बन गया है?

04 दिसंबर, 2010

मुआवजे की आस ताकते भोपाल गैस पीड़ित

साल दर साल बीते गए और बीते 2-3 दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी की 26वीं बरसी की झलक भी अखबारों में और न्यूज चैनलों में देखी गई। कहने को तो... इस गैस त्रासदी को 26 साल हो चुके हैं, मगर पीड़ितों को उनका हक और हर्जाना देने के नाम पर आज भी रस्मादागी ही चल रही है। देश की सबसे बड़ी इस गैस त्रासदी पर गैस पीड़ितों ने तो अमेरिका से लेकर भारत और मध्य प्रदेश सरकार को जमकर कोसा। ‘‘वैसे गैस कांड पीड़ित इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते हैं। इन पीड़ितों को शायद यह पता नहीं कि वो कोई देश के सांसद नहीं है, जो संसद में हंगामा करें और अपनी उस पीड़ा का हर्जाना ले सके, जो वो और उनकी नई पीढ़ी शारीरिक विकलंागता के रूप में झेल रही है।’’ 26 सालों से लगातार अपने हक की लड़ाई लड़ने और गैस कांड के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को सजा दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं। बेशक देश और सरकार भूल जाए, लेकिन भोपाल कैसे भूल सकता है 26 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जो जहरीली गैस रिसी उसने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया था और वहीं हजारों लोग जहरीली गैस से उत्पन्न बीमारियों से जूझने को विवश हैं।

आखिर कब दिया जाएगा मुआवजा?

कम नहीं होते 26 साल। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी अगर सरकार मुआवजा राशि देने पर विचार विमर्श करें तो यह बेहद शर्म की बात है कि जिस गैस कांड में 5000 हजार से ज्यादा की जान गई, हजारों बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाएं विकलांग हुई और अभी तक बस इनके नासूर बने जख्मों पर मरहम लगाने की तैयारी चल रही है। आखिर ये कैसी सरकारनीति है? 1984 में इस कांड के लिए मुआवजे को 750 करोड़ रूपए थी, पता नहीं उसमें से कितना मुआवजे के नाम पर पीड़ितों में बाताशे तरह दिया गया है। मतलब मुआवजा भीख की तरह जिन हाथों में दिया गया उनमें पीड़ितों के हाथ भी कम थे। अब केंद्र सरकार गैस कांड पीड़ितों के लिए मुआवजा दुगुना करने की मांग की जा रही है, मगर इसे ‘जले पर नमक झिड़काना’ कहा जाता है। एक तो इन ढाई दशकों में मुआवजा पीड़ितों तक कट-छटकर पहुंचा है, स्वास्थ्य सुविधएं भी बीमार दी गई है वहां पर अगर मुआवजा दुगुना करने की बात आए तो इसे सिर्फ इसी कहावत के आंका जा सकता है। बेशक, भारत सरकार द्वारा इस भयावह गैस कांड के पीड़ितों के लिए मुआवजे की दुगुना रकम बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं। मगर इस पर आम लोगों और गैस कांड पीड़ितों को विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है।

      खैर, भोपाल गैस कांड की इस 26 साल पुरानी भयावह त्रासदी के बाद भी गैस पीड़ितों को अफसोस, गुस्सा और उम्मीद तीनों ही है। जहां उन्हें अफसोस है कि देश में इतनी बड़ी दुर्घटना होने के समय से लेकर अब तक कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया, जिससे पीड़ितों को राहत मिली हो, बोलवचन और जबानी महरम के साथ कुछ मुआवजा बांट कर जिम्मेदारी पूरी कर दी गई है। जबकि गुस्सा है कि इस त्रासदी के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी ‘वारेन एंडरसन’ को सजा न मिलने की और उम्मीद है कि देर से सही लेकिन सरकार भोपाल गैस पीड़ितों रहमत कर उन्हें राहत दे। शारीरिक रूप से बेकर हो चुके गैस पीड़ितों में अभी भी मुआवजे की आस बरकरार हैं।

27 नवंबर, 2010

कुछ ख़ास तो नही...: देश के लिए ताली और तमाचा साथ!

कुछ ख़ास तो नही...: देश के लिए ताली और तमाचा साथ!: "वैसे तो... काॅमनवेल्थ्स गेम्स 15 अक्टूबर को खत्म हो चुके हैं, पर अभी तक काॅमनवेल्थ गेम्स का शोर कम नहीं हुआ। एक ओर काॅमनवेल्थ की सफलता का बो..."

12 नवंबर, 2010

जहां हो गुरू का अपमान वहां भला कैसा सम्मान!

बीते दिनों पहलवान सुशील कुमार ने ‘विश्व कुश्ती चैंपियनशिप’ जीती तो भारतीय खेल प्रेमियों को खुशी तो हुई पर रज भी। रज की वजह रही सुशील कुमार के माननीय ‘गुरू सतपाल’ का अपमान। जहां सुशील के विश्व कुश्ती चैंपियन बनने का गर्व है, वहीं उसी चैंपियन के प्राथमिक और परम्परागत गुरू सतपाल का गलत तरीके से अपमान करना वाकई देश के लिए शर्म की बात है। शायद हमारे खेल मंत्री एमएस गिल भूल गए कि एक खिलाड़ी के प्राथमिक व पराम्परागत गुरू का सम्मान कैसे किया जाता है? चैंपियनशिप जीतने के बाद पहलवान सुशील कुमार अपने गुरू सतपाल और सरकारी कोच यशवीर के साथ खेल मंत्री एमएस गिल से भेंट करने उनके निवास  पर पहुंचे थे और वहीं पर विश्व चैंपियन के साथ फोटो खिंचवाने और जीत का सारा श्रेय लेने के चक्कर में सुशील के गुरू सतपाल का अपमान कर दिया। दरअसल हुआ यूं कि गिल ने फोटो खिंचवाने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय कोच यशवीर को आगे आने के लिए कहते हुए सतपाल को हट जानेे का इशारा किया। यहां मुद्दा ये नहीं है कि कोच यशवीर को ही फोटो खिंचवाने के लिए ही क्यों बुलाया, बल्कि मुद्दा ये है खेल मंत्री ने वाहवाही और सुर्खी में आने के लिए विजेता के माननीय गुरू का अपमान किया। एक शिष्य बेशक विश्व विजेता बन जाएं, लेकिन वो अपने गुरू के सामने हमेशा शिष्य ही रहता है और अगर उसी शिष्य के सामने उसके गुरू के साथ अपमानजनक तरीका अपनाया जाए तो खिलाड़ी का हौंसला बुलंद नहीं हो सकता। वैसे भी ‘जहां गुरू का अपमान हो वहां भला सम्मान कैसे हो सकता है?’ गिल ये कैसे भूल सकते हैं कि बेशक सुशील कुमार ने कोच यशवीर की उपस्थिति में विश्व चैंपियनशिप जीती हो, मगर उस चैंपियन की बुनियाद तो सतपाल ने ही रखी है और सुशील कुमार के आज विजेता होने के पीछे बीते कल और आज में सतपाल की मेहनत को कम नहीं आंका जा सकता। ऐेसा नहीं है कि सुशील के गुरू सतपाल कोई गुमनाम नाम हैं, बल्कि वे खुद 1982 एशियाई खेल में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं और बीते वर्ष उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार से भी नवाजा गया था। इससे बड़ी बात ये है कि खुद सुशील कुमार का कहना ये है कि बचपन से पहलवानी के गुर सिखाने वाले प्राथमिक गुरू सतपाल की वे बहुत इज्जत करते हैं और उनकी श्रद्धा करते हैं, तो इस पर तो खेल मंत्री का कुछ कहना बनता भी नहीं है।
 बहरहाल, देश में खिलाड़ियों को मांजने और निखरने से ज्यादा मीडिया में छाने और वाहवाही लुटने की रहती है। उक्त उदाहरण इसके लिए काफी है। अगर खेल मंत्री के रवैये के विपरीत देखें तो पता चलेगा कि बुनियादी और प्राथमिक प्रयासों से जितने खिलाड़ी सफल हुए हैं उनमें से बेहद कम सफल रहे हैं, सरकारी तंत्र से बने खिलाड़ी। क्षमता और विशेषता को आंककर गुरू उन्हें विशेष खेल के खिलाड़ी बनाते हंै सतपाल जैसे गुरू। भारत में क्षमता, विशेषता के बीच खिलाड़ियों की कमी नहीं है, फिर भी युवाओं से लबरेज देश में चुनिंदा खिलाड़ी ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाए हुए हैं, वे अपने बल बदौलत बनाएं हैं न कि सरकारी रहमोकरम पर। सरकार के ढूलमूल रवैये के कारण ही प्रतिभाएं उभर नहीं पाती हैं। अच्छा होगा सरकारी खेल तंत्र प्रतिभावान
खिलाड़ियों की खोज करके श्रेय ले, ना कि जिन गुरूओं ने अपने शिष्यों को आज चमकने लायक बनाया है उनका अपमान करे।

देश के लिए ताली और तमाचा साथ!

वैसे तो... काॅमनवेल्थ्स गेम्स 15 अक्टूबर को खत्म हो चुके हैं, पर अभी तक काॅमनवेल्थ गेम्स का शोर कम नहीं हुआ। एक ओर काॅमनवेल्थ की सफलता का बोलबाला है और दूसरी ओर काॅमनवेल्थ का घोटला है। कुछ भी हो पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काॅमनवेल्थ की सफलता ने भारत की छवि को कलंकित होने से बचा ही लिया और यह भी साबित कर दिया कि काॅमनवेल्थ की सफलता में उभरती भारतीय आर्थिक-व्यवस्था, समृद्धि और विकासशीलता का बड़ा योगदान है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश चमक गया और एक भारतीय होने पर इस समय हर भारतवासी को नाज होगा और होना भी चाहिए। भई, इतनी बड़ी जिम्मेदारी के मेजबानी करना कोई मुंह में पान दबाने जैसा आसान काम तो था नहीं। मगर...अफसोस ये है कि काॅमनवेल्थ की जरूरत व उसकी सफलता ने अपने पीछे कई सवाल छोड़े हैं!
हैरानी की बात है जब लगभग पूरा देश काॅमनवेल्थ गेम्स के गुणगान कर रहा था। उसी दौरान आया एक सर्वे काफी चैंकाया वाला था, दरअसल सर्वे कुछ यूं था ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2010 में भारत को 67 वां स्थान है’ और उसपर सोने पर सुहागा ये था कि ‘भुखमरी में भारत, चीन 9 वें स्थान और पाकिस्तान 52 वें स्थान से भी पीछे है।’ आश्रय साफ है कि चीन को इस सूची में 9 वां स्थान मिलना, भारत से बेहतर स्थिति को दर्शाता है वो भी तब, जब चीन की आबादी भारत से काफी ज्यादा है। पता नहीं इस पर हसी आनी चाहिए या गंभीर होना चाहिए। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे शक्तिशाली देशों की सूची में भारत का नंबर-3 है और भुखमरी में 84 देशों की इस सूची में भारत का नंबर 67! ये कैसा शक्तिशाली देश है जो शारीरिक रूप से
भूखा, कमजोर और कुपोषित है! ये कैसा अमीर देश है जहां 45 करोड़ गरीब भूखे सोते हैं! सोचो जरा... कि हम अमीर देश की गरीब जनता है जिनकी स्थिति दशकों से नहीं बदली! जबकि इस भुखमरी के लक्षित रोग कुपोषण, शिशु मृत्यु दर जरूर विकराल होती जा रही है...!
देश में काॅमनवेल्थ की जरूरत थी... तो जो काम राजधानी में 4 पहले होने चाहिए थे, वो 4 महीने में पूरे किए गए...! दिल्ली को नई-नवेली दुल्हन की तरह महज आखिरी कुछ दिनों में सजा दिया...! बारीक अनुमान, तो वैसे कुछ और ही माने जा रहे हैं पर मोटा अंदाजा ये है कि काॅमनवेल्थ में करीब 70,000 करोेड़ रूपए खर्च किए गए...!  71 देशों के 6000 खिलाड़ियों के लिए सैंकड़ों वैरायटी खाने में परोसी गई, उच्च नहीं सर्वोच्च स्तर की सुविधाएं भी काबिले तारीफ थी। वैसे ‘काॅमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी करना देश की एक सकारात्मक उपलब्धि है’, जबकि देश का ‘भुखमरी में 67 वां स्थान पर पाना दूसरी अनचाही उपलब्ध् िहै...!’ काॅमनवेल्थ की सफलता के बाद भी क्या ये मान लिया जाए कि देश में रोजाना करीब 5000 बच्चों का कुपोषण और भूख की भेंट चढ़ना सही है? अब तो ये भी नहीं लगता की देश आर्थिक रूप से कमजोर है और ना ही ये लगता है देश में अनाज कमी है! बल्कि कमी है जरूरत को तवज्जो देने की? और जरूरतों को प्राथमिकता देने का श्रेष्ठ उदाहरण यही हो सकता है कि जहां हर साल लाखों टन अनाज जगह के अभाव, आर्थिक व्यवस्था, अनदेखी और लापरवाही के भंेट चढ़ता। उसी के चलते हर साल करोड़ लोग भुखमरी से मरते हैं। ठोस व्यवस्था के अभाव में साल-दर-साल की यही कहानी है। किंतु वहीं सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता...क्योंकि प्राथमिकता का गहन अध्ययन कर ‘कुछ दिन की शान के लिए अरबों की कीमत के स्टेडियम तैयार करना और दिल्ली को फिर पुर्ननिर्माण करना ज्यादा सस्ता हैं।’
खैर, काॅमनवेल्थ की सफलता के जश्न में हम भी शामिल हैं, पर बस एक भारतीय होने नाते, ना की देश के एक आम नागरिक होने के नाते... क्योंकि इस समय, इस बात से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब देश में काॅमनवेल्थ की सफलता के तालियां बजायी जा रही थी, तभी देश में भुखमरी का तमाचा भी मरा गया था,  वो बात अलग है कि इस तमाचे आवाज और सूजन पर अभी तक किसी का ज्यादा ध्यान नहीं गया है!

‘संदेश’ में झलकते संदेहजनक नहीं ‘सच्चे’ हालात

आज के भागते और विकास करते भारत के लिए हर तारीफ कम है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप बनाए हुए है। यहां की संस्कृति और रिवाजों की दुनिया भर में मिसाल दी जाती है। मगर यह सिक्के का एक पहलू है जिस पर हम गर्व करते हैं जबकि इसका दूसरा पहलू कुछ अलग है जिन्हें महज कुछ ही पंक्तियों मेें सहज ही बयां कर सकते हंै कि बेशक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘संदेश’ देने के लिए ‘भारत’ को  उदाहरणार्थ लिया जाता रहे, लेकिन कभी मात्र कुछ लाइन के मोबाइल ‘संदेश’ में पूरे भारत की ‘वो असली तस्वीर’ बनकर तैयार हो जाती है। जिसके भद्दे रंग उस हर चमकती रंगत को धूमिल कर देते हंै, जिसपर आप और हम घमंड करते हैं। वाकई गौर करने वाली बात है कि क्या ‘ये भारत की उज्जवल तस्वीर’! जहां कार लोन 8 प्रतिशत के ब्याज पर मिलता है और एजुकेशन लोन 12 प्रतिशत का ब्याज दर से लेना पड़ता है? मतलब यहां विलासता,  विद्या पर हावी है। मेरा भारत महान है कि यहीं पर दाल-चावल 80 रूपए किलो मिल रहा है और मोबाइल सिम सिर्फ 10 रूपए में खरीदी जा रही है? जाहिर है कि यहां भी सबसे मूल जरूरत का कोई मोल नहीं। क्या दुरूस्त व्यवस्था है कि पिज्जा डिलीवर 30 मिनट यानी अपने टाइम लीमट में हो जाता हैै, जबकि पुलिस और एंबुलेंस कभी वक्त पर नहीं पहुंचती? क्या जागरूकता है कि चाय की दुकान पर बैठकर आप और हम कहते हंै कि बाल श्रम कराने वालों को सूली पर चढ़ा दिया जाना चाहिए और दूसरे ही पल कहते हैं कि छोटू दो चाय तो ला? इसी देश में सानिया-शोएब की शादी मीडिया में हफ्तों तक सुर्खिंया बटोरती हैं, जबकि नक्सलियों के कहर की कहानी चंद मिनटों में सिमट जाती है? इसी अमानवीयता के चलते पांच सालों में करीब 11 हजार लोगों ने नक्सली हमलों में अपनी जान गवाई है। यही हाल है भारत का! शब्दों का हेरफेर करें या इस लाइनों को छोटा कर दें, पर इससे भारत की बद्सूरत तस्वीर में दिखती कल की तकदीर को बदला नहीं जा सकता। ऐसे ना जाने कितने ही उदाहरणों की चर्चा की जा सकती है कि सात मुख्य बड़ी नदियों के देश में करीब डेढ़ लाख गांव पीने के पानी के लिए तरसते हैं, कृषि में अव्वल देश में करीब साढ़े छह लाख गांव है जिनमें से करीब 72 प्रतिशत गांव के किसान अपनी खेती के लिए केवल बारिश के पानी पर निर्भर रहते हैं। 20 करोड़ गरीब जनता की दशकों से 50-70 रूपए की मामूली दैनिक आय नहीं बढ़ी, लेकिन सांसदों की औसत सम्पत्ति 1.87 करोड़ से बढ़कर 5.33 करोड़ जरूर हो गई है। लेकिन गरीबी का आंकड़ा हाल की 1.50 करोेड़ गरीब लोगों की बढ़ोत्तरी के साथ मालामाल है अब ताजे अनुमान के मुताबिक करीब 40 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे है, जबकि सत्ता का खेल खेलने वाले सांसदों का एक बड़ा प्रतिशत करोड़पति है।
  बच्चों को कल का नेता कहना तो सबको अच्छा लगता है, लेकिन सच तो हकीकत से परे है क्योंकि देश के 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के अधिकार से महरूम है, करीब दो करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं और एक सरकारी अनुमान के अनुसार, देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख है। जबकि एक नीजि संस्था के स्वतंत्र अनुमान के अनुसार, अगर स्कूल के बाहर सभी बच्चों को बाल श्रम समझा जाएं तो करीब 10 करोड़ से ज्यादा का आंकड़ा बैठता है। अब इसी से अनुमान लगया जा सकता है कि देश के कितने बच्चे गरीबी के चलते स्कूल नहीं जा पाते हैं। भूखे पेट करवटें बदलने वाली करोड़ों गरीब जनता के देश में लाखों टन अनाज लापरवाही की भेंट चढ़ा दिया जाता है, बात जयपुर, उदयपुर और गाजियाबाद की ले लीजिए। कहीं अनाज के गोदाम को मयखाना बनाने के लिए अनाज को बाहर निकाल फेंका दिया,  तो कहीं बेहद लापरवाही के चलते बारिश में करोड़ों रूपए का अनाज एकदम बेकार हो गया!
बहरहाल, इन सब लापरवाही और गलत दिशा में होते विकास पर बस अफसोस ही जाहिर किया जा सकता है क्योंकि हमने अपनी जागरूकता को त्याग रखा है। वैसे भी जागरूकता का कोई संगठित मापदंड भी नहीं रह गया है, क्योंकि सबको अपनी-अपनी डबली और अपना-अपना राग ही सुहा रहा है। एक तो देश की राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर ताने कसने से बाज नहीं आती है और दूसरी ओर आम जनता महंगाई के साथ-साथ और समस्याओं को लेकर रोती रहती है। बस, ऐसे ही सब चल रहा था और चल रहा है और चलता रहेगा? क्योंकि जब देश के हालात आजादी के समय से लेकर अब तक नहीं बदले। बल्कि 62 सालों में जमीनी विकास बद् से बदतर हो गए हैं तो भविष्य में इन्हें बदलने की कोई उम्मीद नहीं लगाई जा सकती!