16 जनवरी, 2011

‘गर्व या शर्म’ क्या महसूस करें ‘हम’ ?

  
आपने लंदन प्रिंस चाल्र्स की योजना के बारे में तो सुना और पढ़ा होगा। दरअसल, प्रिंस चाल्र्स की संस्था ‘प्रिंसेज फाउंडेशन’ भारत के गरीबों को आशियाने देने की योजना बना रही है। इसके लिए कल्याणकारी कार्यों में लगी ‘प्रिंसेज फाउंडेशन’ के द्वारा ‘माॅडल टाउनशिप’ नाम की योजना को तैयार किया जा रहा है। योजना के मुताबिक, 25 एकड़ जमीन पर दो बस्तियों को बनाया जाएगा और इसके लिए जमीन का चुनाव बेंगलौर और कोलकाता हो सकता है। जानकारी के मुताबिक,‘‘ प्रिंस चाल्र्स को ‘स्लमडाॅग मिलेनियर’ फिल्म ने सोचने पर मजबूर किया। वे मानते है कि ‘भारतीय झुग्गियोंवासियों का जीवन बहुत ही गंदा, बीमार और गरीब है।’ शायद इसीलिए वह भारत की गरीब बस्तियांे व झुग्गियो में रहने वालों के जीवन को कुछ सुधारना चाहते हैं।’’ जिसके मद्देनजर चाल्र्स ने बेंगलौर और कोलकाता में लगभग 15 हजार गरीब और बेसहारा लोगों को स्वच्छ व स्वस्थ रहन-सहन देने के लिए करीब 3 हजार घर बनाने की योजना को अमलीजामा पहना सकते हैं। चलो, इस योजना से ये उम्मीद जताई जा सकती है कि यह एक सुधारात्मक पहल है। अगर यह योजना सफलतापूर्वक पूरी हो गई तो करीब 15 हजार लोगों को बढ़िया आशियाने मिल सकते हैं।
वैसे, पता नहीं आॅस्कर जीतकर ‘स्लमडाॅग मिलेनियर’ फिल्म ने क्या साबित किया? पता नहीं झुग्गी-झुपड़ियों के मुश्किल जीवन, गंदगी और अपराध पर बनी ‘स्लमडाॅग मिलेनियर’ को भारतवासियों को ‘इंप्रेस या डिप्रेस’? मगर हां, विदेशी दर्शकों-प्रंशसकों को खूब आकर्षित किया। भई करे भी क्यूं ना आखिर किसी भी देश के गरीबों के फटे चिथड़ों को देखने में भला किसकों रूचि नहीं होगी!  जहां भारतीयों फिल्मों को एक आॅस्कर पुरस्कार हासिल करने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है। वहीं स्लमडाॅग मिलेनियर ने 8 आॅस्कर झटक लिये। फिल्म के लगभग हर पहलू को श्रेष्ठ दर्शाते हुए फिल्म को भी श्रेष्ठ घोषित किया और फिल्म के निर्देशक, निर्माता और संगीतकार संग सभी भारतीयों कलाकारों ने इसे मील का पत्थर मान लिया। जबकि हकीकत तो यह है कि ‘‘जिस फिल्म को आॅस्कर से नवाजा गया था इसका वास्तविक पहलू भारत की गरीबी, गंदगी, आपराधिक होते बचपन और आपराधियों को दिया गया है, जिससे दर्शकों ने माना कि वाकई भारत की इन समस्या का अच्छा समावेश किया है।’’
खैर, इस फिल्म ने भारतीय सरकार और भारतीयों की आंखों को तो नहीं खोला, मगर लंदन के प्रिंस चाल्र्स ने इसे गंभीरता से जरूर लिया है और इस स्थिति को सुधारने के लिए भी प्रेरित किया। आर्थिक रूप से उभरते भारत बेशक अंतर्राष्ट्रीय देशों के साथ बड़ी-बड़ी अरबों-खरबों की ‘डील’ करें। लेकिन उनके लिए भारतीय गरीबी, भुखमरी, गंदगी और अस्वस्थता से मरते लोगों को बचाने के लिए कोई खास सुझाव या प्रोजेक्ट नहीं होते या उनपर ‘वर्क’ करना जरूरी नहीं समझते। चलों जो भी है बेशक भारतीय सरकार ना सही, भले ही भारतीय ना सही, मगर लंदन के राजकुमार ने तो यह पहल की और एक भारतीय होने के नाते हमारी ओर से शुभकामनाएं रहेंगी की इन लाचारों, बेबस, बीमार और गरीबों का उद्धार हो जाए। मगर इसके साथ यह सवाल अपने आपसे है कि क्या प्रिंस चाल्र्स द्वारा की जा रहीं इस योजना पर हमें ‘गर्व’ होना चाहिए या इसपर ‘शर्म’ महसूस करनी चाहिए?