सपनों के लम्हों को आज हम संवारने चले,
उस बेजान-बंजर जमीं पर बहार उगाने चले हैं।
उस बेजान-बंजर जमीं पर बहार उगाने चले हैं।
ये जानते हैं हम कि मौसम है “पतझड़” का,
फिर भी उम्मीदों का बसंत बसाने चले हैं।।
फिर भी उम्मीदों का बसंत बसाने चले हैं।।
मालूम हैं हकीकत से दूर खड़े हैं वो,
फिर भी अरमानों का बाजार सजाने चले हैं।
फिर भी अरमानों का बाजार सजाने चले हैं।
पलभर का भी साथ ना मिला उस “हमसफर” का,
और हम जिंदगी को उनके साथ बिताने चले हैं।।
इन राहों पर उलझे फैसलों को हम सुलझाने चले,
सच को जानते ही नहीं और झूठ को सच बनाने चले हैं।
सच को जानते ही नहीं और झूठ को सच बनाने चले हैं।
जिंदगी के सफर में छूटे सपनों के इस ” कारवां ” को,
आज हम फिर संभालकर सुंदर सच बनाने चले हैं।।
आज हम फिर संभालकर सुंदर सच बनाने चले हैं।।
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