09 दिसंबर, 2010

शिक्षा-मंदिर में गरीबों का जाना क्यों है ‘वर्जित’?

नन्हें हाथों में कलम का जादू दिखाई देता, अपने नौनिहालों को पढ़ते लिखते देख मन खुश तो होता होगा! भविष्य की बुनियाद में शिक्षा रूपी सीमंेट, पत्थर, रेता और पानी के महत्व को भला कौन नहीं जानता। कहने को तो ‘‘अनपढ़ों का जीवन भी हो जाता है सार्थक, मगर उस सार्थकता को आसान डगर खुद अनपढ़ कह नहीं सकता।’’ शिक्षा का दर्पण जहां भविष्य की उज्जवल छवि को दिखाता है वहीं अशिक्षा का पर्दा उन छवियों को छिपाने में बेहद कामयाब होता है। हम बात कर रहे है ‘शिक्षा’ की। दरअसल बात ये है कि हाल ही में डाॅयचे बैंक की एक रिपोर्ट सामने क्या आई कि मन में शिक्षा के जुड़े सवाल उठने लगे। रिपोर्ट का कथन था कि अगले दो दशकों में भारत में काम करने वाली आबादी में 24 करोड़ की बढ़ोतरी हो जाएगी। जो कि ब्रिटेन की कुल आबादी का चार गुना है। यानि ब्रिटेन की कुल आबादी से चार गुना ज्यादा हमारे देश में काम करने वाले यानि नौकरीपेशा होंगे। लेकिन एशियन डेवलपमेंट बैंक के प्रबंध निदेशक का कहना है कि शिक्षा के बिना इस आबादी का यह लाभ नहीं उठा सकते हैं। और यह सच भी है आप और हम इस बात का अंदाजा सहज लगा सकते हैं कि करीब 120 करोड़ की आबादी वाले देश में अगर धीमी गति की शिक्षा हो तो देश का क्या होगा! देश के विकास का क्या होगा! देश की नई पीढ़ी का क्या होगा! आंकड़े बताते हैं कि देश की करीब 70 से 80 प्रतिशत आबादी आज भी 20 से 25 रूपए में अपना गुजारा करती है। ऐसे में मूल जरूरतों को काट-काट कर पूरा किया जाता है, तो गरीब परिवार अपने बच्चों को शिक्षा कैसे दिलाएं? इसी का परिणाम है कि राष्ट्रीय आर्थिक विकास से वंचित गरीब व पिछड़े इलाकों में भी शिक्षा ना के बराबर है। वैसे भारत में कामगरों की उम्र 15 साल से शुरू हो जाती है, मगर सच्चाई तो यह है कि 15 से काफी कम उम्र के बच्चे को बहुत आसानी से काम करते हुए देखा जा सकता है। तो इस नजरिए से देश का विकास होना निश्चित है और शिक्षाविदों को चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। मगर हां, अगर बात देश में निरक्षरता को दूर करने की है तो इस मुद्दें को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है। क्योंकि ये हमें निर्धारित करना है कि हमारी देश की भावी पीढ़ी ‘नौकरी’ करेगी या ‘गुलामी’? क्योंकि भारत की 120 करोड़ आबादी की आधी आबादी 25 साल से कम की है। 2035 तक भारत की आबादी 150 करोड़ होगी और उसमें कामकाजी प्रतिशत आबादी 65 फीसदी होगी। लेकिन भारत को इस आबादी का लाभ तभी मिलेगा जब देश के भावी पीढ़ी को बुनियादी रूप से मजबूत शिक्षा दी जाए, उसके प्रशिक्षित किया जाना बहुत बड़ी चुनौती है। जिसमें खुद विशेषज्ञों का भी कहना है कि भारत इसमें मामले में बहुत पीछे छूट रहा है। इसी साल अप्रैल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून पास किया है। लेकिन इस पर अमल के लिए स्कूलों और शिक्षकों का अभाव है। इस कानून पर अमल के लिए 12 लाख शिक्षकों की जरूरत है लेकिन इस समय भारत में सिर्फ 7 लाख शिक्षक हैं और उनमें भी 25 फीसदी काम पर नहीं जाते। भारत में साक्षरता दर 65 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह 91 प्रतिशत और यहां तक कि केन्या में 85 प्रतिशत है। एक रिपोर्ट के अनुसार, स्कूल में भर्ती होने वाले बच्चों में से 39 फीसदी 10 की उम्र में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और 15 से 19 की आयु के किशोरों में सिर्फ 2 फीसदी का व्यावसायिक प्रशिक्षण मिलता है। सूत्रों के अनुसार, हमारी सबसे बड़ी चुनौती स्कूल के स्तर पर है। देश में डाॅप आउट दर बहुत ऊंची है। लेकिन जो स्कूल पास कर जाते हैं, उन्हें ऊंची शिक्षा के कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरना होता है। श्ेिाक्षा के मुद्दे पर भारत के शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल का मानना है कि ‘‘2020 तक हाई स्कूल पास करने वाले बच्चों की संख्या इस समय के 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए सैकड़ों नए काॅलेज और विश्वविद्यालय बनाने होंगे। इस मांग को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस बनाने की अनुमति देने वाले कानून का मसौदा तैयार किया है।’’

अब सोचने वाली बात यह है कि आजादी के छह दशके के दौरान शिक्षा के विकास पर मसौदा का चलन बहुत ज्यादा रहा है। एक और सरकार है कि निरक्षरता को दूर करने के दावे करती है, वहीं दूसरी ओर धीमी कार्यनीति इन दांवों को पूरा होने से पहले ही दम तोड़ने पर मजबूर कर देती है। देश में जनसंख्या, गरीबी और अशिक्षा तो तेजी से बढ़ रही है, लेकिन सरकारी तौर स्कूल, काॅलेज उतनी तेजी से नहीं बढ़ पा रहे हैं। गैर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर के स्कूल और काॅलेज की बात करें तो उनमें देश की उस 80 प्रतिशत आबादी का भला कैसे हो सकता जो मात्र 20 रूपए की दैनिक आय पर जी रही है। अगर आसान शब्दों में शिक्षा के मुद्दों पर कुछ सटीक कहना हो तो कह सकते हैं

कि ‘‘एक तो देश शिक्षा में था ‘गरीब’, उस पर भी शिक्षा बहुत ‘महंगी’ हो गई।

     गरीब ‘कैसे’ जाएं स्कूल-काॅलेज, जब शिक्षा-देवी ही इनसे ‘रूठ’ गई।।

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