नमस्कार जी, मैं हूं अंजू सिंह, अभी तक का बस मेरा परिचय इतना ही है। मेरा ब्लाग जैसे नाम से पता चल गया होगा ‘कुछ खास तो नहीं’ बस यही सच है। साधारण सोच के साथ लिखना शुरू किया है और साधारण सोच को शब्दों में बदलना चाहती हूं। सामाजिक और जनचेतना से जुड़े सवालों पर सवाल करना मुझे पसंद है। स्वभाव से कुछ कठोर और बातों से लचीली हूं, फिर भी सबकी सोच को सुनना मुझे रास आता है। अगर आप मेरे लेख को झेल पाएं तो मेरी लेखनी को दम मिलेगा और नहीं झेल पाए तो मुझे और साधारण रूप से लिखने का दम भरना पड़ेगा...
27 नवंबर, 2010
कुछ ख़ास तो नही...: देश के लिए ताली और तमाचा साथ!
कुछ ख़ास तो नही...: देश के लिए ताली और तमाचा साथ!: "वैसे तो... काॅमनवेल्थ्स गेम्स 15 अक्टूबर को खत्म हो चुके हैं, पर अभी तक काॅमनवेल्थ गेम्स का शोर कम नहीं हुआ। एक ओर काॅमनवेल्थ की सफलता का बो..."
12 नवंबर, 2010
जहां हो गुरू का अपमान वहां भला कैसा सम्मान!
बीते दिनों पहलवान सुशील कुमार ने ‘विश्व कुश्ती चैंपियनशिप’ जीती तो भारतीय खेल प्रेमियों को खुशी तो हुई पर रज भी। रज की वजह रही सुशील कुमार के माननीय ‘गुरू सतपाल’ का अपमान। जहां सुशील के विश्व कुश्ती चैंपियन बनने का गर्व है, वहीं उसी चैंपियन के प्राथमिक और परम्परागत गुरू सतपाल का गलत तरीके से अपमान करना वाकई देश के लिए शर्म की बात है। शायद हमारे खेल मंत्री एमएस गिल भूल गए कि एक खिलाड़ी के प्राथमिक व पराम्परागत गुरू का सम्मान कैसे किया जाता है? चैंपियनशिप जीतने के बाद पहलवान सुशील कुमार अपने गुरू सतपाल और सरकारी कोच यशवीर के साथ खेल मंत्री एमएस गिल से भेंट करने उनके निवास पर पहुंचे थे और वहीं पर विश्व चैंपियन के साथ फोटो खिंचवाने और जीत का सारा श्रेय लेने के चक्कर में सुशील के गुरू सतपाल का अपमान कर दिया। दरअसल हुआ यूं कि गिल ने फोटो खिंचवाने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय कोच यशवीर को आगे आने के लिए कहते हुए सतपाल को हट जानेे का इशारा किया। यहां मुद्दा ये नहीं है कि कोच यशवीर को ही फोटो खिंचवाने के लिए ही क्यों बुलाया, बल्कि मुद्दा ये है खेल मंत्री ने वाहवाही और सुर्खी में आने के लिए विजेता के माननीय गुरू का अपमान किया। एक शिष्य बेशक विश्व विजेता बन जाएं, लेकिन वो अपने गुरू के सामने हमेशा शिष्य ही रहता है और अगर उसी शिष्य के सामने उसके गुरू के साथ अपमानजनक तरीका अपनाया जाए तो खिलाड़ी का हौंसला बुलंद नहीं हो सकता। वैसे भी ‘जहां गुरू का अपमान हो वहां भला सम्मान कैसे हो सकता है?’ गिल ये कैसे भूल सकते हैं कि बेशक सुशील कुमार ने कोच यशवीर की उपस्थिति में विश्व चैंपियनशिप जीती हो, मगर उस चैंपियन की बुनियाद तो सतपाल ने ही रखी है और सुशील कुमार के आज विजेता होने के पीछे बीते कल और आज में सतपाल की मेहनत को कम नहीं आंका जा सकता। ऐेसा नहीं है कि सुशील के गुरू सतपाल कोई गुमनाम नाम हैं, बल्कि वे खुद 1982 एशियाई खेल में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं और बीते वर्ष उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार से भी नवाजा गया था। इससे बड़ी बात ये है कि खुद सुशील कुमार का कहना ये है कि बचपन से पहलवानी के गुर सिखाने वाले प्राथमिक गुरू सतपाल की वे बहुत इज्जत करते हैं और उनकी श्रद्धा करते हैं, तो इस पर तो खेल मंत्री का कुछ कहना बनता भी नहीं है।
बहरहाल, देश में खिलाड़ियों को मांजने और निखरने से ज्यादा मीडिया में छाने और वाहवाही लुटने की रहती है। उक्त उदाहरण इसके लिए काफी है। अगर खेल मंत्री के रवैये के विपरीत देखें तो पता चलेगा कि बुनियादी और प्राथमिक प्रयासों से जितने खिलाड़ी सफल हुए हैं उनमें से बेहद कम सफल रहे हैं, सरकारी तंत्र से बने खिलाड़ी। क्षमता और विशेषता को आंककर गुरू उन्हें विशेष खेल के खिलाड़ी बनाते हंै सतपाल जैसे गुरू। भारत में क्षमता, विशेषता के बीच खिलाड़ियों की कमी नहीं है, फिर भी युवाओं से लबरेज देश में चुनिंदा खिलाड़ी ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाए हुए हैं, वे अपने बल बदौलत बनाएं हैं न कि सरकारी रहमोकरम पर। सरकार के ढूलमूल रवैये के कारण ही प्रतिभाएं उभर नहीं पाती हैं। अच्छा होगा सरकारी खेल तंत्र प्रतिभावान
खिलाड़ियों की खोज करके श्रेय ले, ना कि जिन गुरूओं ने अपने शिष्यों को आज चमकने लायक बनाया है उनका अपमान करे।
बहरहाल, देश में खिलाड़ियों को मांजने और निखरने से ज्यादा मीडिया में छाने और वाहवाही लुटने की रहती है। उक्त उदाहरण इसके लिए काफी है। अगर खेल मंत्री के रवैये के विपरीत देखें तो पता चलेगा कि बुनियादी और प्राथमिक प्रयासों से जितने खिलाड़ी सफल हुए हैं उनमें से बेहद कम सफल रहे हैं, सरकारी तंत्र से बने खिलाड़ी। क्षमता और विशेषता को आंककर गुरू उन्हें विशेष खेल के खिलाड़ी बनाते हंै सतपाल जैसे गुरू। भारत में क्षमता, विशेषता के बीच खिलाड़ियों की कमी नहीं है, फिर भी युवाओं से लबरेज देश में चुनिंदा खिलाड़ी ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाए हुए हैं, वे अपने बल बदौलत बनाएं हैं न कि सरकारी रहमोकरम पर। सरकार के ढूलमूल रवैये के कारण ही प्रतिभाएं उभर नहीं पाती हैं। अच्छा होगा सरकारी खेल तंत्र प्रतिभावान
खिलाड़ियों की खोज करके श्रेय ले, ना कि जिन गुरूओं ने अपने शिष्यों को आज चमकने लायक बनाया है उनका अपमान करे।
देश के लिए ताली और तमाचा साथ!
वैसे तो... काॅमनवेल्थ्स गेम्स 15 अक्टूबर को खत्म हो चुके हैं, पर अभी तक काॅमनवेल्थ गेम्स का शोर कम नहीं हुआ। एक ओर काॅमनवेल्थ की सफलता का बोलबाला है और दूसरी ओर काॅमनवेल्थ का घोटला है। कुछ भी हो पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काॅमनवेल्थ की सफलता ने भारत की छवि को कलंकित होने से बचा ही लिया और यह भी साबित कर दिया कि काॅमनवेल्थ की सफलता में उभरती भारतीय आर्थिक-व्यवस्था, समृद्धि और विकासशीलता का बड़ा योगदान है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश चमक गया और एक भारतीय होने पर इस समय हर भारतवासी को नाज होगा और होना भी चाहिए। भई, इतनी बड़ी जिम्मेदारी के मेजबानी करना कोई मुंह में पान दबाने जैसा आसान काम तो था नहीं। मगर...अफसोस ये है कि काॅमनवेल्थ की जरूरत व उसकी सफलता ने अपने पीछे कई सवाल छोड़े हैं!
हैरानी की बात है जब लगभग पूरा देश काॅमनवेल्थ गेम्स के गुणगान कर रहा था। उसी दौरान आया एक सर्वे काफी चैंकाया वाला था, दरअसल सर्वे कुछ यूं था ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2010 में भारत को 67 वां स्थान है’ और उसपर सोने पर सुहागा ये था कि ‘भुखमरी में भारत, चीन 9 वें स्थान और पाकिस्तान 52 वें स्थान से भी पीछे है।’ आश्रय साफ है कि चीन को इस सूची में 9 वां स्थान मिलना, भारत से बेहतर स्थिति को दर्शाता है वो भी तब, जब चीन की आबादी भारत से काफी ज्यादा है। पता नहीं इस पर हसी आनी चाहिए या गंभीर होना चाहिए। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे शक्तिशाली देशों की सूची में भारत का नंबर-3 है और भुखमरी में 84 देशों की इस सूची में भारत का नंबर 67! ये कैसा शक्तिशाली देश है जो शारीरिक रूप से
भूखा, कमजोर और कुपोषित है! ये कैसा अमीर देश है जहां 45 करोड़ गरीब भूखे सोते हैं! सोचो जरा... कि हम अमीर देश की गरीब जनता है जिनकी स्थिति दशकों से नहीं बदली! जबकि इस भुखमरी के लक्षित रोग कुपोषण, शिशु मृत्यु दर जरूर विकराल होती जा रही है...!
देश में काॅमनवेल्थ की जरूरत थी... तो जो काम राजधानी में 4 पहले होने चाहिए थे, वो 4 महीने में पूरे किए गए...! दिल्ली को नई-नवेली दुल्हन की तरह महज आखिरी कुछ दिनों में सजा दिया...! बारीक अनुमान, तो वैसे कुछ और ही माने जा रहे हैं पर मोटा अंदाजा ये है कि काॅमनवेल्थ में करीब 70,000 करोेड़ रूपए खर्च किए गए...! 71 देशों के 6000 खिलाड़ियों के लिए सैंकड़ों वैरायटी खाने में परोसी गई, उच्च नहीं सर्वोच्च स्तर की सुविधाएं भी काबिले तारीफ थी। वैसे ‘काॅमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी करना देश की एक सकारात्मक उपलब्धि है’, जबकि देश का ‘भुखमरी में 67 वां स्थान पर पाना दूसरी अनचाही उपलब्ध् िहै...!’ काॅमनवेल्थ की सफलता के बाद भी क्या ये मान लिया जाए कि देश में रोजाना करीब 5000 बच्चों का कुपोषण और भूख की भेंट चढ़ना सही है? अब तो ये भी नहीं लगता की देश आर्थिक रूप से कमजोर है और ना ही ये लगता है देश में अनाज कमी है! बल्कि कमी है जरूरत को तवज्जो देने की? और जरूरतों को प्राथमिकता देने का श्रेष्ठ उदाहरण यही हो सकता है कि जहां हर साल लाखों टन अनाज जगह के अभाव, आर्थिक व्यवस्था, अनदेखी और लापरवाही के भंेट चढ़ता। उसी के चलते हर साल करोड़ लोग भुखमरी से मरते हैं। ठोस व्यवस्था के अभाव में साल-दर-साल की यही कहानी है। किंतु वहीं सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता...क्योंकि प्राथमिकता का गहन अध्ययन कर ‘कुछ दिन की शान के लिए अरबों की कीमत के स्टेडियम तैयार करना और दिल्ली को फिर पुर्ननिर्माण करना ज्यादा सस्ता हैं।’
खैर, काॅमनवेल्थ की सफलता के जश्न में हम भी शामिल हैं, पर बस एक भारतीय होने नाते, ना की देश के एक आम नागरिक होने के नाते... क्योंकि इस समय, इस बात से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब देश में काॅमनवेल्थ की सफलता के तालियां बजायी जा रही थी, तभी देश में भुखमरी का तमाचा भी मरा गया था, वो बात अलग है कि इस तमाचे आवाज और सूजन पर अभी तक किसी का ज्यादा ध्यान नहीं गया है!
हैरानी की बात है जब लगभग पूरा देश काॅमनवेल्थ गेम्स के गुणगान कर रहा था। उसी दौरान आया एक सर्वे काफी चैंकाया वाला था, दरअसल सर्वे कुछ यूं था ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2010 में भारत को 67 वां स्थान है’ और उसपर सोने पर सुहागा ये था कि ‘भुखमरी में भारत, चीन 9 वें स्थान और पाकिस्तान 52 वें स्थान से भी पीछे है।’ आश्रय साफ है कि चीन को इस सूची में 9 वां स्थान मिलना, भारत से बेहतर स्थिति को दर्शाता है वो भी तब, जब चीन की आबादी भारत से काफी ज्यादा है। पता नहीं इस पर हसी आनी चाहिए या गंभीर होना चाहिए। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे शक्तिशाली देशों की सूची में भारत का नंबर-3 है और भुखमरी में 84 देशों की इस सूची में भारत का नंबर 67! ये कैसा शक्तिशाली देश है जो शारीरिक रूप से
भूखा, कमजोर और कुपोषित है! ये कैसा अमीर देश है जहां 45 करोड़ गरीब भूखे सोते हैं! सोचो जरा... कि हम अमीर देश की गरीब जनता है जिनकी स्थिति दशकों से नहीं बदली! जबकि इस भुखमरी के लक्षित रोग कुपोषण, शिशु मृत्यु दर जरूर विकराल होती जा रही है...!
देश में काॅमनवेल्थ की जरूरत थी... तो जो काम राजधानी में 4 पहले होने चाहिए थे, वो 4 महीने में पूरे किए गए...! दिल्ली को नई-नवेली दुल्हन की तरह महज आखिरी कुछ दिनों में सजा दिया...! बारीक अनुमान, तो वैसे कुछ और ही माने जा रहे हैं पर मोटा अंदाजा ये है कि काॅमनवेल्थ में करीब 70,000 करोेड़ रूपए खर्च किए गए...! 71 देशों के 6000 खिलाड़ियों के लिए सैंकड़ों वैरायटी खाने में परोसी गई, उच्च नहीं सर्वोच्च स्तर की सुविधाएं भी काबिले तारीफ थी। वैसे ‘काॅमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी करना देश की एक सकारात्मक उपलब्धि है’, जबकि देश का ‘भुखमरी में 67 वां स्थान पर पाना दूसरी अनचाही उपलब्ध् िहै...!’ काॅमनवेल्थ की सफलता के बाद भी क्या ये मान लिया जाए कि देश में रोजाना करीब 5000 बच्चों का कुपोषण और भूख की भेंट चढ़ना सही है? अब तो ये भी नहीं लगता की देश आर्थिक रूप से कमजोर है और ना ही ये लगता है देश में अनाज कमी है! बल्कि कमी है जरूरत को तवज्जो देने की? और जरूरतों को प्राथमिकता देने का श्रेष्ठ उदाहरण यही हो सकता है कि जहां हर साल लाखों टन अनाज जगह के अभाव, आर्थिक व्यवस्था, अनदेखी और लापरवाही के भंेट चढ़ता। उसी के चलते हर साल करोड़ लोग भुखमरी से मरते हैं। ठोस व्यवस्था के अभाव में साल-दर-साल की यही कहानी है। किंतु वहीं सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता...क्योंकि प्राथमिकता का गहन अध्ययन कर ‘कुछ दिन की शान के लिए अरबों की कीमत के स्टेडियम तैयार करना और दिल्ली को फिर पुर्ननिर्माण करना ज्यादा सस्ता हैं।’
खैर, काॅमनवेल्थ की सफलता के जश्न में हम भी शामिल हैं, पर बस एक भारतीय होने नाते, ना की देश के एक आम नागरिक होने के नाते... क्योंकि इस समय, इस बात से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब देश में काॅमनवेल्थ की सफलता के तालियां बजायी जा रही थी, तभी देश में भुखमरी का तमाचा भी मरा गया था, वो बात अलग है कि इस तमाचे आवाज और सूजन पर अभी तक किसी का ज्यादा ध्यान नहीं गया है!
‘संदेश’ में झलकते संदेहजनक नहीं ‘सच्चे’ हालात
आज के भागते और विकास करते भारत के लिए हर तारीफ कम है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप बनाए हुए है। यहां की संस्कृति और रिवाजों की दुनिया भर में मिसाल दी जाती है। मगर यह सिक्के का एक पहलू है जिस पर हम गर्व करते हैं जबकि इसका दूसरा पहलू कुछ अलग है जिन्हें महज कुछ ही पंक्तियों मेें सहज ही बयां कर सकते हंै कि बेशक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘संदेश’ देने के लिए ‘भारत’ को उदाहरणार्थ लिया जाता रहे, लेकिन कभी मात्र कुछ लाइन के मोबाइल ‘संदेश’ में पूरे भारत की ‘वो असली तस्वीर’ बनकर तैयार हो जाती है। जिसके भद्दे रंग उस हर चमकती रंगत को धूमिल कर देते हंै, जिसपर आप और हम घमंड करते हैं। वाकई गौर करने वाली बात है कि क्या ‘ये भारत की उज्जवल तस्वीर’! जहां कार लोन 8 प्रतिशत के ब्याज पर मिलता है और एजुकेशन लोन 12 प्रतिशत का ब्याज दर से लेना पड़ता है? मतलब यहां विलासता, विद्या पर हावी है। मेरा भारत महान है कि यहीं पर दाल-चावल 80 रूपए किलो मिल रहा है और मोबाइल सिम सिर्फ 10 रूपए में खरीदी जा रही है? जाहिर है कि यहां भी सबसे मूल जरूरत का कोई मोल नहीं। क्या दुरूस्त व्यवस्था है कि पिज्जा डिलीवर 30 मिनट यानी अपने टाइम लीमट में हो जाता हैै, जबकि पुलिस और एंबुलेंस कभी वक्त पर नहीं पहुंचती? क्या जागरूकता है कि चाय की दुकान पर बैठकर आप और हम कहते हंै कि बाल श्रम कराने वालों को सूली पर चढ़ा दिया जाना चाहिए और दूसरे ही पल कहते हैं कि छोटू दो चाय तो ला? इसी देश में सानिया-शोएब की शादी मीडिया में हफ्तों तक सुर्खिंया बटोरती हैं, जबकि नक्सलियों के कहर की कहानी चंद मिनटों में सिमट जाती है? इसी अमानवीयता के चलते पांच सालों में करीब 11 हजार लोगों ने नक्सली हमलों में अपनी जान गवाई है। यही हाल है भारत का! शब्दों का हेरफेर करें या इस लाइनों को छोटा कर दें, पर इससे भारत की बद्सूरत तस्वीर में दिखती कल की तकदीर को बदला नहीं जा सकता। ऐसे ना जाने कितने ही उदाहरणों की चर्चा की जा सकती है कि सात मुख्य बड़ी नदियों के देश में करीब डेढ़ लाख गांव पीने के पानी के लिए तरसते हैं, कृषि में अव्वल देश में करीब साढ़े छह लाख गांव है जिनमें से करीब 72 प्रतिशत गांव के किसान अपनी खेती के लिए केवल बारिश के पानी पर निर्भर रहते हैं। 20 करोड़ गरीब जनता की दशकों से 50-70 रूपए की मामूली दैनिक आय नहीं बढ़ी, लेकिन सांसदों की औसत सम्पत्ति 1.87 करोड़ से बढ़कर 5.33 करोड़ जरूर हो गई है। लेकिन गरीबी का आंकड़ा हाल की 1.50 करोेड़ गरीब लोगों की बढ़ोत्तरी के साथ मालामाल है अब ताजे अनुमान के मुताबिक करीब 40 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे है, जबकि सत्ता का खेल खेलने वाले सांसदों का एक बड़ा प्रतिशत करोड़पति है।
बच्चों को कल का नेता कहना तो सबको अच्छा लगता है, लेकिन सच तो हकीकत से परे है क्योंकि देश के 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के अधिकार से महरूम है, करीब दो करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं और एक सरकारी अनुमान के अनुसार, देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख है। जबकि एक नीजि संस्था के स्वतंत्र अनुमान के अनुसार, अगर स्कूल के बाहर सभी बच्चों को बाल श्रम समझा जाएं तो करीब 10 करोड़ से ज्यादा का आंकड़ा बैठता है। अब इसी से अनुमान लगया जा सकता है कि देश के कितने बच्चे गरीबी के चलते स्कूल नहीं जा पाते हैं। भूखे पेट करवटें बदलने वाली करोड़ों गरीब जनता के देश में लाखों टन अनाज लापरवाही की भेंट चढ़ा दिया जाता है, बात जयपुर, उदयपुर और गाजियाबाद की ले लीजिए। कहीं अनाज के गोदाम को मयखाना बनाने के लिए अनाज को बाहर निकाल फेंका दिया, तो कहीं बेहद लापरवाही के चलते बारिश में करोड़ों रूपए का अनाज एकदम बेकार हो गया!
बहरहाल, इन सब लापरवाही और गलत दिशा में होते विकास पर बस अफसोस ही जाहिर किया जा सकता है क्योंकि हमने अपनी जागरूकता को त्याग रखा है। वैसे भी जागरूकता का कोई संगठित मापदंड भी नहीं रह गया है, क्योंकि सबको अपनी-अपनी डबली और अपना-अपना राग ही सुहा रहा है। एक तो देश की राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर ताने कसने से बाज नहीं आती है और दूसरी ओर आम जनता महंगाई के साथ-साथ और समस्याओं को लेकर रोती रहती है। बस, ऐसे ही सब चल रहा था और चल रहा है और चलता रहेगा? क्योंकि जब देश के हालात आजादी के समय से लेकर अब तक नहीं बदले। बल्कि 62 सालों में जमीनी विकास बद् से बदतर हो गए हैं तो भविष्य में इन्हें बदलने की कोई उम्मीद नहीं लगाई जा सकती!
बच्चों को कल का नेता कहना तो सबको अच्छा लगता है, लेकिन सच तो हकीकत से परे है क्योंकि देश के 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के अधिकार से महरूम है, करीब दो करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं और एक सरकारी अनुमान के अनुसार, देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख है। जबकि एक नीजि संस्था के स्वतंत्र अनुमान के अनुसार, अगर स्कूल के बाहर सभी बच्चों को बाल श्रम समझा जाएं तो करीब 10 करोड़ से ज्यादा का आंकड़ा बैठता है। अब इसी से अनुमान लगया जा सकता है कि देश के कितने बच्चे गरीबी के चलते स्कूल नहीं जा पाते हैं। भूखे पेट करवटें बदलने वाली करोड़ों गरीब जनता के देश में लाखों टन अनाज लापरवाही की भेंट चढ़ा दिया जाता है, बात जयपुर, उदयपुर और गाजियाबाद की ले लीजिए। कहीं अनाज के गोदाम को मयखाना बनाने के लिए अनाज को बाहर निकाल फेंका दिया, तो कहीं बेहद लापरवाही के चलते बारिश में करोड़ों रूपए का अनाज एकदम बेकार हो गया!
बहरहाल, इन सब लापरवाही और गलत दिशा में होते विकास पर बस अफसोस ही जाहिर किया जा सकता है क्योंकि हमने अपनी जागरूकता को त्याग रखा है। वैसे भी जागरूकता का कोई संगठित मापदंड भी नहीं रह गया है, क्योंकि सबको अपनी-अपनी डबली और अपना-अपना राग ही सुहा रहा है। एक तो देश की राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर ताने कसने से बाज नहीं आती है और दूसरी ओर आम जनता महंगाई के साथ-साथ और समस्याओं को लेकर रोती रहती है। बस, ऐसे ही सब चल रहा था और चल रहा है और चलता रहेगा? क्योंकि जब देश के हालात आजादी के समय से लेकर अब तक नहीं बदले। बल्कि 62 सालों में जमीनी विकास बद् से बदतर हो गए हैं तो भविष्य में इन्हें बदलने की कोई उम्मीद नहीं लगाई जा सकती!
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