07 दिसंबर, 2010

ये है घोटाले के पेट में विकसित होता ‘भारत’

हम भारत की विविधता के कारण जाने जाते हैं, ढेरों भाषाएं व भिन्न-भिन्न संस्कृति के रंग भारतीयता की पहचान है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत एक ऐसा उभरता पूंजीवादी देश है, जहां पर विकास की संभावनाएं अपार है। और शायद इसीलिए हर देश भारत को अपने सांचे में उतरना चाहता है। हाल ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का आना और भारी-भरकम नौकरी का प्रलोभन देकर अपना काम करके चलते बने। अब आए हैं फ्रांस के राष्ट्रपति निकोल सरकोजी। उन्होंने भी कहीं न कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था का फायदा उठाने का मूड बनाया ही होगा। वैसे, यह भारत का वह एक तरफा पहलू है जिसे अन्य शक्तिशाली देश लाभ लेना चाहते हैं, मगर इसका दूसरा पहलू तो खुद भारत को सवालों के घिरे में खड़ा करता है। भारत भ्रष्टाचार के मामले में अन्य देशों से काफी आगे है। कुछ सालों में घोटालों की कई पोल खुली है कि समझ नहीं आ रहा कि पहले किसको समझे! आम नजरिए के अनुसार, सभी घोटालों का घालमेल भारतीय ‘राजनीति की घोटालेबाजी’ की ओर भी इशारा कर रही है। सबसे ताजा घोटाले के तौर पर 2 जी स्पैक्ट्रस घोटाला। जिसके कारण केंद्र सरकार सवालों के घेरे में खड़ी है। आए दिन विपक्षी पार्टियों केंद्र पर दबाव बनाने के हथकंडे अपना रही है। पर क्या आप को पता है कि ‘2 स्पैक्ट्रम घोटाले में 39 अरब के घोटाले की बात सामने आ रही है, मगर इस नुकसान से अलग संसद, सरकार और देश की आर्थिक स्थिति को नुकसान हो रहा है, उसका क्या होगा? ’ क्योंकि 9 नवंबर संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो चुका है और अब तक 16 संसद सभा हो जानी चाहिए थी, मतलब देश के अन्य गंभीर मुद्दों व समस्याओं के निवारण के लिए संसद में उठाना चाहिए था। लेकिन अफसोस है कि संसद की कार्यवाही में 2 स्पैक्ट्रम घोटाला आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा है। दरअसल, विपक्षी पार्टियांे ने केंद्र पर इस समय जो दबाव 2 स्पैक्ट्रम घोटाले के कारण बनाया है, उसे वह बिना नतीजा नहीं जाने देना चाहती है। चाहे फिर इसके लिए कितना भी नुकसान क्यों ना हो?

   अब बात अगर संसद की कार्यवाही के दौरान खर्च की जाए तो पता चलता है कि संसद की प्रति बैठक का खर्च करीब 8 करोड़ बैठता है। और हिसाब लगाया जाए तो 16 बैठकों का खर्च अनुमानित 1 अरब से ज्यादा होना चाहिए। अब सांसदों और विपक्षी पार्टियों को कौन समझाएं कि जिस तरह से संसद की कार्यवाही नहीं होने के कारण प्रति बैठक नुकसान हो रहा है इसको भी तो ‘इनका मिश्रित घोटाला’ कहा जा सकता है। केंद्र के विपक्ष में खड़ी पार्टियों को पार्टी हित से अलग आम लोगों व देश से जुड़ी अन्य समस्याआंे पर ध्यान देना चाहिए। खैर, इनको समझाना बेकार है, क्योंकि घोटालों की गंदगी साफ करने की कोशिश में यह भी देश व देश की आम जनता के साथ उनकी मांगों और समस्याओं का घोटाला कर रहे है।
अगर हम थोड़ा सोचे और घोटालों के पन्ने पलटे तो पता चलेगा कि देश में जल्दी जल्दी कई घोटाले हुए है पर अभी तक कोई भी निर्णयक स्थिति में नहीं है। जैसे-
2जी स्पैक्ट्रम का आवंटन घोटाला - जिसमें 39 अरब का नुकसान हुआ। इस घोटाले पर लम्बे समय तक पर्दा डालने का प्रयास किया गया। आखिर में भारी दबाव के चलते संचार मंत्री ए. राजा से त्यागपत्र मांगा गया और केंद्र को भी आड़े हाथों लेने की विपक्ष की तैयारी जोरो पर है।
हाउसिंग लोन घोटाला - एक वर्ष की जाँच के बाद सीबीआई ने एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के प्रमुख सहित आठ लोगों को गिरफ्तार किया। जिसमें कई नामी बैंकों के शीर्ष पदाधिकारियों पर शिकांजा कसा जा रहा है। अनुमान है कि यह घोटाला कई हजार करोड का हो सकता है।
कॉमनवेल्थ खेल घोटाला - हाल फिलहाल ही तो दिल्ली काॅमनवेल्थ का भूत उतरा है। मगर इसके साथ अन्य कई घोटालों के दानव खड़े हो गए हैं। निर्माण कार्यों में अवांछित देरी और अनाप शनाप खर्चों ने भारतीय ऑलम्पिक संघ, दिल्ली सरकार, दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली नगर निगम सहित केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय को भी कठघरे में खड़ा किया। बजट से कहीं ज्यादा खर्च करने के घोटाले में सीबीआई जांच कर रही है।
आदर्श सोसाइटी घोटाला - कारगिल के शहीदों के परिवारवालों के लिए बनी इस सोसाइटी पर कांग्रेस पार्टी के नेताओं, बाबुओं और सेना के ऊपरी अधिकारियों ने कब्जा कर लिया। स्वयं मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण इस घोटाले में फंस गए और उन्हें इस्तीफा देना पडा। यह सोसाइटी मुम्बई के एक सबसे महंगे इलाके में बनी है। यह इमारत कई अन्य विवादों में भी फंसी है। आरोप है कि बिल्डर ने पर्यावरण संबंधित तथा जमीन संबंधित कानूनों पर ध्यान नहीं दिया।
सत्यम घोटाला - सत्यम घोटाले से भला कौन परिचित नहीं है कि सत्यम कम्प्यूटर्स के संस्थापक रामलिंग राजू की चिट्टी से ऐसा भूचाल आया कि शेयर मार्किट भी औंधे मुंह गिर पड़ा। दरअसल, उन्होनें लिखा कि किस तरह से वर्षों तक कम्पनी ने लाभ अर्जित करने के झूठे आँकडे दिखाए। 1 बिलियन के लगभग इस घोटाले को भारत का एनरोन भी कहा जाता है ।
हर्षद मेहता घोटाला - 1992 में बोम्बे स्टोक एक्सेंज में तूफान सा आ गया था। संसेक्स तेजी से ऊपर चढ रहा था। परंतु पर्दे के पीछे का खेल कुछ और ही था। कई भारतीय शेयर दलालों ने इंटर बैंक ट्रांसेक्शन के साथ बाजार को उफान पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें कई देशी और विदेशी बैंकें, बाबु और नेता भी शामिल थे। जब इस घोटाले से पर्दा उठा तो दो महिने के भीतर बाजार 40। तक गिर गया और लोगों के लाखों-करोड़ों रूप डूब गए।
बोफोर्स तोप घोटाला- भारत ने जब स्वीडन से बोफोर्स तोप खरीदी तब आरोप लगा कि इस तोप को खरीदने के लिए दबाव बनाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नजदीकी लोगों को रिश्वत दी गई थी। इस घोटाले की वजह से कांग्रेस का विभाजन हुआ और 1989 के आम चुनावों में पार्टी की हार हुई। यह केस वर्षों से चल रहा है और शायद वास्तविकता कभी सामने ना आ पाए।
  तो ये अपने विकासशील देश का दूसरा पहलू। जो घोटालों और भ्रष्टाचार के पूरी तरह लैस है। देश और आम लोगों का पैसा घोटाले के बड़े पेट में समा गया। निराशा है कि जिस देश की विकासशीलता के दावे विश्व करता है, वहां पर घोटाले व भ्रष्टाचार के ऐसे जाल बिछे है जिन्हें अभी तक काटा नहीं गया है। अगर साधारण शब्दों में कहा जाए तो सिर्फ इतना काफी है कि अब देश में घोटाला नहीं बल्कि घोटाले में देश है और इसे से ये प्रदर्शित होता है कि ‘ ये है घोटाले के पेट में विकसित होता भारत।’ सरकारी और गैरसरकारी घोटालों से भरपूर देश की ये एक भयानक छवि है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

मुआवजे की आस ताकते भोपाल गैस पीड़ित

साल दर साल बीते गए और बीते 2-3 दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी की 26वीं बरसी की झलक भी अखबारों में और न्यूज चैनलों में देखी गई। कहने को तो... इस गैस त्रासदी को 26 साल हो चुके हैं, मगर पीड़ितों को उनका हक और हर्जाना देने के नाम पर आज भी रस्मादागी ही चल रही है। देश की सबसे बड़ी इस गैस त्रासदी पर गैस पीड़ितों ने तो अमेरिका से लेकर भारत और मध्य प्रदेश सरकार को जमकर कोसा। ‘‘वैसे गैस कांड पीड़ित इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते हैं। इन पीड़ितों को शायद यह पता नहीं कि वो कोई देश के सांसद नहीं है, जो संसद में हंगामा करें और अपनी उस पीड़ा का हर्जाना ले सके, जो वो और उनकी नई पीढ़ी शारीरिक विकलंागता के रूप में झेल रही है।’’ 26 सालों से लगातार अपने हक की लड़ाई लड़ने और गैस कांड के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को सजा दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं। बेशक देश और सरकार भूल जाए, लेकिन भोपाल कैसे भूल सकता है 26 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जो जहरीली गैस रिसी उसने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया था और वहीं हजारों लोग जहरीली गैस से उत्पन्न बीमारियों से जूझने को विवश हैं।

आखिर कब दिया जाएगा मुआवजा?
   कम नहीं होते 26 साल। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी अगर सरकार मुआवजा राशि देने पर विचार विमर्श करें तो यह बेहद शर्म की बात है कि जिस गैस कांड में 5000 हजार से ज्यादा की जान गई, हजारों बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाएं विकलांग हुई और अभी तक बस इनके नासूर बने जख्मों पर मरहम लगाने की तैयारी चल रही है। आखिर ये कैसी सरकारनीति है? 1984 में इस कांड के लिए मुआवजे को 750 करोड़ रूपए थी, पता नहीं उसमें से कितना मुआवजे के नाम पर पीड़ितों में बाताशे तरह दिया गया है। मतलब मुआवजा भीख की तरह जिन हाथों में दिया गया उनमें पीड़ितों के हाथ भी कम थे। अब केंद्र सरकार गैस कांड पीड़ितों के लिए मुआवजा दुगुना करने की मांग की जा रही है, मगर इसे ‘जले पर नमक झिड़काना’ कहा जाता है। एक तो इन ढाई दशकों में मुआवजा पीड़ितों तक कट-छटकर पहुंचा है, स्वास्थ्य सुविधएं भी बीमार दी गई है वहां पर अगर मुआवजा दुगुना करने की बात आए तो इसे सिर्फ इसी कहावत के आंका जा सकता है। बेशक, भारत सरकार द्वारा इस भयावह गैस कांड के पीड़ितों के लिए मुआवजे की दुगुना रकम बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं। मगर इस पर आम लोगों और गैस कांड पीड़ितों को विश्वास करना थोड़ा मुश्किल है।
            खैर, भोपाल गैस कांड की इस 26 साल पुरानी भयावह त्रासदी के बाद भी गैस पीड़ितों को अफसोस, गुस्सा और उम्मीद तीनों ही है। जहां उन्हें अफसोस है कि देश में इतनी बड़ी दुर्घटना होने के समय से लेकर अब तक कोई ऐसा निर्णय नहीं लिया, जिससे पीड़ितों को राहत मिली हो, बोलवचन और जबानी महरम के साथ कुछ मुआवजा बांट कर जिम्मेदारी पूरी कर दी गई है। जबकि गुस्सा है कि इस त्रासदी के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी ‘वारेन एंडरसन’ को सजा न मिलने की और उम्मीद है कि देर से सही लेकिन सरकार भोपाल गैस पीड़ितों रहमत कर उन्हें राहत दे। शारीरिक रूप से बेकर हो चुके गैस पीड़ितों में अभी भी मुआवजे की आस बरकरार हैं।

राजनीति में ‘दलाल’ और ‘जेल’ का ये कैसा बोलबाला?



सपा (समाजवादी पार्टी) में एक बार फिर से आजम खान की वापसी क्या हुई कि मानों अमर सिंह की दुःखती रग पर हाथ रख दिया हो। दर्द की पीड़ा भी ऐसी हुई कि अमर सिंह ने ‘सपा के नेताओं को जेल का रास्ता भी बता दिया।’ दरअसल,  मामला ये है कि पहले तो अमर सिंह ने खुद के लिए ‘दलाल’ जैसे उपाधि झेली और अब सपा में आजम खान की ‘री-एंट्री’ से वह तिलमाला गए हैं। जिसके चलते अमर सिंह ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और अभी-अभी समाजवादी पार्टी में दुबारा आगमन करने वाले आजम खान को भी सचेत करने का प्रयास किया और कहा कि ‘‘अगर मैंने मुंह खोला तो सपा के कई नेता जेल में होंगे’’। वैसे अमर सिंह द्वारा इस प्रकार की टिप्पणी करना कितना जायज है, ये अमर सिंह का अपना नीजि व राजनीतिक मुद्दा है। क्योंकि आजम खान और अमर सिंह के आपसी मतभेद के कारण ही पहले आजम खान पार्टी से गए और बाद में अमर सिंह भी पार्टी से निष्कासित कर दिए गए थे। मगर अब हवाओं का रूख बदल चुका है और डेढ़ साल के बाद सपा आजम खान का ‘मोस्ट-वेलकम’ कर रही है।
       वैसे अमर सिंह ने 14 साल सपा को अपनी सेवाएं दी है, इसी भावना के साथ उनको यह पता होना चाहिए कि आज सपा की हालत पतली है और भविष्य में सपा को मुस्लिम वोटों का भी टोटा पड़ सकता है। इसी टोटे की भारपाई करने के लिए आजम खान का मान-मनोहार कर सपा ने उन्हें पार्टी में फिर से शामिल किया है। लम्बे समय से आपसी तानातनी में अमर सिंह और आजम खान के बीच जबानी जंग चल रही है। अपने आप को ‘दलाल’ सुने जाने पर अमर सिंह का कहना है कि ‘‘ मैं 14 साल तक मुलायम सिंह की बैसाखी रहा हूं। अगर मैंने मुंह खोला तो सपा के कई नेता जेल की सलाखों के पीछे होंगे और आजम खान को अपने नेता यानि मुलायम सिंह से पूछना चाहिए कि 14 सालों में मैंने कितनी सप्लाई की।’’ अमर सिंह का अपने बचाव में यह बयान देना कुछ हद तक सही कहा जा सकता है। मगर ‘मुह खुला तो सपा के कई नेता जेल की सलाखों के पीछे होंगे’ वाला बयान इनके लिए परेशानी की वजह बन सकता है, क्योंकि एक पार्टी से 14 साल जुड़े होने बाद अगर वो अपने पास सपा नेताओं को जेल भेजने की वजह रखते हैं, तो कहीं ना कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से उन  कारणों में शामिल भी जरूर रहे होंगे और अगर शामिल नहीं है तो चुप क्यों हैं! जनता और पार्टी के हितों से दूर होकर उन्होंने भला क्यों उन नेताओं को बख्श रहा है जिन्हें उनके ही अनुसार, जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए! वैसे इस समय अमर सिंह उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर लोकमंच के अध्यक्ष हैं।

खैर, अब सोचनीय मुद्दा है कि राजनीतिक पखवाड़े में जबानी जंग में इस तरह के बयान आम हो गए है और आम लोग भी इस तरह की बयानबाजी से वाकिफ हो रहे हैं। बात सिर्फ गलत शब्दों के इस्तेलाल की नहीं बल्कि राजनीति के प्रति निष्ठा और कर्मठता पर सवालिया निशान भी है कि ‘‘जब तक जिस पार्टी में रहो तो, तब तक मुंह में मिश्री को दबाए रखो और जैसे ही पार्टी से अलग हो तो करेला चबाने लगो।’’ जहां एक ओर इस तरह के बयान राजनीति बहस में बदलते देर नहीं लगती है वहीं विपक्षी पार्टियों व आम लोगों का भी ध्यान आकर्षित करती है। मगर अब लगता है कि पार्टी-पार्टी और नेता-नेता की जंग में इस तरह की भाषा का प्रयोग राजनीतिक एजंेडा बन गया है?