25 अप्रैल, 2011

श्रद्धा के नाम पर ये कैसा मायाजाल?


भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे... ऐसा मेरे लिखने का विचार तो बिलकुल भी नहीं था, पर लिखने पर मजबूर हूं। संभव है कि यह लेख विवादों का आधार बन सकता है... पर जो मैंने देखा और अनुभव किया है जरा आप भी ये अनुभव करके देखो... 24 अप्रैल 2011 को करीब एक महीने शारीरिक बीमारी को झेलते हुए अध्यात्मिक गुरू सत्य साईं ने आखिरी सांस ली, आमतौर पर किसी भी साधारण या असाधारण व्यक्ति का निधन होना कभी भी खुशी का विषय नहीं हो सकता है, लेकिन वो कुछ सवालों, जवाबों और विवादों का मामला जरूर बन जाता है। बस कुछ ऐसा ही लग रहा है सत्य साईं बाबा का मामला ? वैसे तो बाबा अपने श्रद्धालुओं के बीच काफी चर्चित हैं, लेकिन कुछ समय से इनके चर्चाओं का बाजार खूब तेज चल रहा है। कभी इलाज, कभी अस्पताल, कभी दवाई और कभी उनपर पर सबकुछ बेकार...! देश-विदेश में रहने वाले लाखों श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र माने जाने वाले सत्य साईं बाबा के अंतिम सांस लेने के साथ दुःखभरी और नमीभरी आह भी देशभर में निकल गई। क्या नेता? क्या अभिनेता? क्या खिलाड़ी और क्या आम जनता? ज्यादातर श्रद्धालुओं का कहना है कि ‘बाबा सत्य साईं के निधन को देश की बहुत बड़ी हानि है।’ वैसे गजब का शोक था कि सभी न्यूज चैनलों पर बाबा ही बाबा छाए रहे... अब देखिए कुछ ऐसा ही होता है ‘ह्यूमन नेचर’!
दरअसल, सत्य साईं बाबा मीडिया के संग-संग आम लोगों के बीच इतने चर्चा आ रहे थे कि आम लोगों के बीच मेरी मानसिकता भी कुछ ऐसी हो रही थी। इसके चलते मुझे उत्सुकता हुई कि बाबा के बारे में कुछ और जानकारी जुटाई जाए... यानी उनके व्यक्तित्व और चमत्कार के कुछ दर्शन कर लिए जाएं... सो मैं बैठ गई नेट पर और बाबा से संबंधित कुछ नोट्स और वीडियो खोजने। अब इसे मेरी अच्छी किस्मत कहें या बुरी, क्योंकि पहली वीडियो देखी तो लगा कि जो मैं इतने दिनों से सोच रही थी वो वास्तव में इतना सच्चा नहीं जितना कि उसे दिखाया और बताया जा रहा है। अब मुझे ये तो नहीं पता कि वो वीडियो के साथ किसी ने खुरापात की है या नहीं ? पर जो उसमें दिखा उसपर पर सजह विश्वास किया जा सकता है... मात्र एक वीडियो ने सभी सवालों पर और भी सवाल खड़े कर दिए कि ‘‘वाह रे भारत और वाह रे भारतवासी!’’ वाकई हम भारतीय आस्था के मामले में बहुत भावनात्मक है। उस वीडियो में साफ दिखाया गया है कि बाबा ने किस तरह बार-बार अपने हाथों की सफाई का इस्तेमाल किया है, इससे तो यह भी पता चलता है कि बाबा के पास कोई शक्ति नहीं बल्कि हाथों की सफाई और नजर को धोखा देने का मंत्र हैं। वे गजब के जादू प्रदर्शनकारी हैं, बेहद बढि़या अंदाज और मामूली फेरबदल करके सबकी आंखों में धूल झोंक रहे थे और किसी को कुछ पता ही नही...
खैर, छोड़ो ये सवाल बहुत हुए और अब हम रूख करते है कुछ ऐसे सवालों की ओर जिससे कि बाबा के श्रद्धालुओं की नाराजगी होना लाजिमी है... माना वह साईं बाबा के अवतार है, तो इन आधुनिक सत्य साईं बाबा के पास हजारों करोड़ की संपत्ति कहां से आई! माना उन्होंने कई अस्पताल, स्कूल और संस्थाएं बनवाएं, फिर भी आम जनता की सेवा में भला करोड़ों की आमदनी और उसकी बचत कैसे संभव है! चलो ठीक है, साईं के अवतार हैं, पर हैरानी है कि खुद को साईं का अवतार करने वाले सत्य साईं ने साईं जैसी जीवन शैली नहीं अपनाई! चर्चा तो इस बात की भी ज्यादा है कि बाबा बचपन से ही चमत्कार करते थे, हवा से तरह तरह के चमत्कारों से श्रद्धालुओं को चकित किया है, अपने छोटे से मुंह से औसतन बड़े-बड़े सोने के अंडानुमा सोना उगलते हैं, हाथों से गोल-गोल घुमाकर विभूति और सोने की चेन तक निकालते हैं। मगर बाबा ने अपने इस चमत्कार यानी सोना उगलने वाली शक्ति का बस मीडिया में छाने का तरीका बनाया ना कि गरीबों की गरीबी दूर करने का रास्ता बनाया! आप जरा सोचो, सच्चे साईं बाबा तो सबके अंदर अपने आप को देखते थे और हर प्राणी उनके लिए साईं था, मगर यहां तो उल्टा है। भाई साहब, ये सत्य साईं तो अपने आप को साईं बोल रहे हैं...! अब और क्या क्या कहूं जरा नीचे लिखी कुछ इन पक्तियों भी थोड़ा गौर करिये...

सोचो और समझो...
एक ‘साईं बाबा’ रहे जीवन भर बस एक ‘फकीर’
जबकि ‘सत्य र्साइं बाबा’ बने आज के ‘अमीर’...
एक सांई का घर मात्र रहा ‘द्वारका माई’
जबकि दूसरे के ‘वास में खूब वैभवता’ छाई...
एक ने ‘सबका मलिक एक है’ का गान गाया...
जबकि दूसरे ने खुद को ही ‘साईं ’ बताया...
एक साईं ने ‘अपनी-मृत्यु’ खुद की बताई पाई
जबकि सत्य साईं ने ‘वक्त’ से पहले ली विदाई...
एक ने अपनी विरासत में छोड़ी ‘श्रद्धा और सबूरी’
जबकि दूसरे की विरासत रह गई बिना ‘अधिकारी’...

देखिए, माफी चाहती हूं उन सत्य साईं बाबा के श्रद्धालुओं से जो इनकी श्रद्धा करते हैं। किसी की भावना को ठेस लगाने का मेरा कोई विचार नहीं था। मैं भी शक्ति पर विश्वास करती हूं, लेकिन खुद की नंगी आंखों से देखी गई शक्ति पर ही विश्वास किया जाए तो बेहतर है।

11 अप्रैल, 2011

राजनीति-भ्रटाचार भाई-भाई है, ‘प्लीज, कुछ ना बोले’ ?

हमारे देश में सब कुछ है, बस थोड़ी सी परेशानी ये है कि आम आदमी महंगाई से परेशान, रोजगार में नाकाम, कुपोषण से ग्रस्त, गरीबी से बेहाल और शिक्षा से अब भी बड़ी संख्या बेजार है, बाकी सब ठीक -ठाक है...! वैसे बेचारा देश भ्रष्टाचार में जकड़ हुआ है, घोटालों ने देश की जनता को नींबू की तरह निचोड़ रखा है बस... और सब एक दम दुरूस्त है कुछ परेशानी नही...! क्यों सही कहा न...! लगता है आप थोड़ा सा भ्रमित हो गए हैं? आप सोच रहे हैं कि पता नहीं मैं क्या कहना चाह रही हूं...! दरअसल मैं अपने देश और अपने देश की आम स्थिति को समझने की कोशिश कर रही हूं। नेताओं की बातें समझने की कोशिश कर रही हूं कि वो आखिर कहना क्या चाह रहे हैं? मतलब, अभी-अभी अन्ना हजारे ने जिस तरह से देश में होते भ्रष्टाचार की नाक में नकेल डालने की कोशिश की वह वाकई तारीफ के लायक है। मानना पड़ेगा कि मात्र पांच-छह दिन में इस ‘आमरण अनशन’ व ‘जनलोकपाल बिल’ को पास करवाने के लिए भारतीयों का जो समर्थन मिला वह कमाल का था और कहीं ना कहीं देश को इस तरह के आंदोलन की जरूरत तो ‘खल’ रही थी। जहां अन्ना हजारे के साथ आम आदमी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘हल्ला बोल’ रहे हैं, वहीं कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी कहना चाहते है कि ‘‘अन्ना जी, राजनीति और भ्रष्टाचार हैं भाई-भाई प्लीज, कुछ ना बोले..?’’ मतलब उनका कहना है कि ‘‘राजनीति बिना भ्रष्टाचार के नहीं चल सकती, यानी राजनीतिक पार्टियों को चलाने के बहुत ज्यादा धन की जरूरत होती है और उस धन की कमी को भ्रष्टाचार से ही पूरा किया जाता है। इनका यह भी कहना है अगर इस समय गांधी जी भी होते तो वो भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं होते, जिसके कारण वे भ्रष्टाचार कर राजनीति करते या फिर राजनीति छोड़ देते...!’’ वैसे इन्होंने इतना कहने के बाद ‘इस बात का आशय गलत समझे जाने पर इस पर सफाई भी दी है। मगर इस बात में सच्चाई तो है, मुझे ये तो नहीं पता की आप इस बात से सहमत है या नहीं, पर मैं तो सहमत हूं!
देखिए, राजनीति में भ्रष्टाचार की जरूरत तो है, राजनीति कोई बच्चों का खेल तो नहीं, जो बस आभासी खिलौने भर से खेलकर मन को खुश कर दे! राजनीति कोई देश सेवा भी नहीं है जो कर्म की बुनियाद पर देश के हित में सोचे और आम जनता के दिलों पर राज करे! और हां, राजनीति आप की अपनी गृहस्थी भी नहीं है जिसमें आप मर्यादा, संस्कार, सुविधा, जरूरत और समृद्धि का
देश के हित में सोचा है। आज की आधुनिक सेवाभाव सोच यानी राजनीति से वो कोसो दूर रहे, शायद इसलिए भ्रष्टाचार करने की जरूरत नहीं पड़ी होगी! अगर देश के नेता और सरकार वाकई इस गांधीवादी सेवा भाव को अपना लें, तो भ्रष्टाचार तो अपने अपने आप ही खत्म होने लगेगा, नहीं तो राजनीति की इधर-उधर की चालों में भ्रष्टाचार भी अपने आप छिपाने की जगह ढूंढ ही लेगा...!

07 अप्रैल, 2011

गांधीवादी सोच में लिपटे अन्ना, नहीं ‘आसान पहेली’...



अन्ना, अन्ना हजारे, अन्ना हजारे और लोकपाल बिल। भई क्या माजरा है ये...? कुछ दिनों से यही सुनने और पढ़ने को मिल रहा है। मोबाइल फोन और ईमेल पर द्वारा भी अन्ना हजारे और उनके लोकपाल बिल के संबंध में ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ने की कोशिश की जा रही है। चलिए, तो हम आप को कागजों से अलग अन्ना हजारे से मिलवाते है। ‘अन्ना हजारे’ यानी भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे भारत के ‘एक आम नागरिक’ हैं, वे एक ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ भी है। वैसे उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ खास नहीं जिन्हंे फिल्मी अंदाज में बताया जा सके, मगर उनके व्यक्तित्व में वो गांधीवादी भाषा और आचरण के दर्शन जरूर होते हैं, जिनके बल पर 6 दशक पहले भारत को आजादी मिली थी। इनके द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘लोकपाल विधेयक’ पास करवाने के साथ-साथ इसमें आम लोगों को जागरूक होकर भागीदार बनाने और भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचारियों को उखाड़ फेंकने के लिए ‘अमरण अनशन’ करने का ठोस कदम उठाया है और इसी से आप और हम प्रभावित हो सकते हैं। कहा जा सकता है। अंग्रेजों की गुलामी तो हमें 64 साल पहले मिली थी, लेकिन अब अपने देश को भ्रष्टता और भ्रष्टाचारियों से आजाद कराने के लिए इस नए क्रांतिकारी का नाम आने वाले समय में लिया जा सकता है। शायद इतनी जानकारी अन्ना हजारे के बारे में काफी है। राजनीति में फैलती गंदगी और छींटाकशी में मशगूल राजनीतिज्ञ अपनी आम दिनचर्या में बिजी हैं, जबकि आप और हम अपने रोजमर्रा के नियमित कामों में व्यस्त है। वहीं दूसरी और भ्रष्टता और भ्रष्टचारियों की जड़े पूरे देश में फैल चुकी हैं। रोज कोई ना कोई घोटाले उजागर होते हैं, देश की निम्न स्थिति को दर्शाते आंकड़े भी आए दिन देखने, सुनने और पढ़ने को मिल ही जाते है। देश में आम जनता का जिक्र बस गरीबी, कुपोषण, निरक्षरता, भुखमरी और बेरोजगारी को लेकर होता है ...
आज जब हम आधुनिकता की सीढि़यों को चढ़ते हैं तो गर्व करते हैं कि हम भारतवासी हैं, हम उस देश का हिस्सा है जिसका लोहा दुनिया मानती है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर देश हमारा साथ पाना चाहता है, क्योंकि कहीं ना कहीं इस स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय शक्ति जरूर मानती होंगी की भारत के पास तन, मन और सबसे खास धन तो बहुत है। इसी का प्रमाण है स्विस बैंकों में हमारे देश अरबों खरबों रूपया पड़ा है, जिसे हमारे देश बड़े पेट वाले सफेदपोश भ्रष्टाचारियों ने छिपा कर रहा है। देश के वासी, देश का पैसा, देश से वसूला, देश से ही लूटा और छिपाया विदेशी बैंकों में? इतनी हिम्मत आम लोगों में नहीं हो सकती। सीधी सी बात है जब तक ‘सफेद लाइट’ का ‘सिग्नल’ ना तब तक पैसों की गाड़ी आगे नहीं चल सकती। खैर, बात की ज्यादा गहराई में ना जाते हुए बस यही कहना चाहती हूं कि जागरूकता और पहल ऐसे दो हथियार है जिससे बड़े से बड़े पहाड़ को काटा जा सकता है, शायद अन्ना हजारे देश में जल्द-जल्द ये दो हथियारो की धार तेज करने को तैयार हैं। चलिए, मुद्दा अच्छा, वजह ठोस और और समस्या का समाधान भी जरूरी है। इसीलिए अन्ना हजारे को ‘भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों’ पर विजय प्राप्त हो, इसके लिए उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।

06 अप्रैल, 2011

बड़े दिल वालों का छोटा बड़-बोलापन...?


भारत ने वल्र्ड कप क्या जीता कि सभी की जागते हुए तो दूर बल्कि सोते हुए भी नींद को घुन लग गया है, ऐसा मैं नहीं कह रही हूं बल्कि ऐसा तो वो कह रहे हैं जिन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट कप्तान शाहिद अफरीदी और श्रीलंकाई राष्ट्रपति के दोगलेपन और बड़बोलेपन को सुना और पढ़ा है। ताजा उदाहरण अभी सुर्खियों में बना हुआ है कि ‘‘शाहिद अफरीदी ने कहा है कि भारत और भारत के लोगों का दिल बहुत छोटा, जिसके कारण उनके साथ लम्बे रिश्ते बनाने में बहुत परेशानी होती है। अल्लाह ने भारत वालों को इनता बड़ा और साफ दिल नहीं दिया, जितना की हम पाकिस्तानियों को दिया है।’’ हम अफरीदी की भावना को ठेस ना लगाते हुए बस ये कहना चाहती हूं कि शायद, शाहिद अफरीदी ने कभी कबीर दोहों पर गौर नहीं फरमाया है, अगर इन्हांेने इनपर कभी थोड़ा सा भी गौर फरमाया होता, उनका पता होता था कि मुंह मियां मिट्ठू बनाने से कोई भी अपने बड़े दिल और बड़ी सोच वाला नहीं दिखता। जैसे की कबीर के दोहे में कहा गया है

कि-ः ‘‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलया कोए।
      जो दिल खोजा आपना, मुझसे से बुरा ना कोए’’।।
   इस दोहे को आप और हम एक साधुवाद नजरिए से सोचते हैं, लेकिन इसे हम एक सामाजिक सांचे में भी ढाल सकते हैं। शायद इसी नजरिए को ध्यान में रखते हुए ‘हम भारतीय अपनी कमी या गलती को सामने से खुद मान लेते हंै और उपलब्धियों का बखान करने में भी हिचकते हैं।’ वो बात अलग है कि अब हमारे देश की मीडिया इस सामाजिक सोच और साधुवाद सोच से थोड़ा आगे निकल आई है ये दोनों काम वो बाखूबी कर लेती है। जिसके कारण उसे भी अफरीदी की बड़-बोलेपन का शिकार होना पड़ा। वैसे यहां पर थोड़ा सा भारतीय मीडिया को दोषी ठहराया जा सकता है। वाकई वल्र्ड कप को लेकर भारतीय मीडिया ने कुछ ज्यादा ही मिर्च-मसाला लगाया और खेल भावना से खेले जाने वाले खेल को ‘भारत और पाक के बीच महासंग्राम आज’ और ‘आज बजेगा लंका का डंका’ जैसी हेडलाइन का जमकर इस्तेमाल किया। भाई क्या जरूरत है इस तरह तिल का ताड़ बनाने की। खैर, ये बात तो हुई हमारी कमी की। पर ये क्या अभी हमें अपनी एक कमी का एहसास ही हुआ था कि श्रीलंका ने भी कुछ अफरीदी टाइप कमंेट कर दिया है, जरा आप भी सुनिए भला माजरा क्या है? दरअसल, श्रीलंकाई राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे का कहना है कि ‘‘भारत को वल्र्ड कप जीत की खुशी श्रीलंका की वजह से मिली है, क्योंकि श्रीलंका की 2 करोड़ जनसंख्या ने भारत की 1 अरब 21 करोड़ जनता को कुछ पल खुशी के देना चाहती थी। इसीलिए श्रीलंका वल्र्ड कप से एक कदम पीछे हट गई।’’ चलो भई, भला हो श्रीलंका का कि उनसे भारत के लिए इतना बड़ा कदम उठाया और इसी के साथ पाक कप्तान को कहना चाहूंगी की सीखो, सीखो अफरीदी कुछ श्रीलंका के खिलाडि़यों, सरकार और जनता से कुछ सीखो। इसे कहते हैं बड़कपन और बड़ा दिल। जो हमें खुशी देने के लिए फाइनल मैच में हारने की इच्छा लेकर मैदान पर उतरे थे। मगर ये क्या, इस सारे किए कराए पर श्रीलंका राष्ट्रपति महिंद्र राजपक्षे ने पानी फेर दिया! भई, क्या जरूरत थी कि इस तरह से खुलेआम ये कहने की श्रीलंकाई टीम ने भारत की खुशी के लिए इनता बड़ा त्याग किया है। 
  क्या क्रिकेट के करोड़ो प्रशंसक और दर्शक देख नहीं सकते कि श्रीलंका ने भारत को किस तरह से प्रोत्साहित किया था? क्या उन्हें दिखाई नहीं दिया था जब 275 रनों का पीछा करते महेंद्र सिंह धोनी ने जीत हासिल करने वाला आखिरी छक्का जड़ा था तो श्रीलंकाई टीम के चहेरे पर कैसी रौनक आई थी? और दिल से निकल गया था कि ‘‘देखो, देखों हमारी इतनी कोशिशों के बाद भारत आखिर जीत ही गया।’’ क्यों राजपक्षे जी आप यहीं कहना चाह रहे थे ना ?  ऐसा मैं नहीं बल्कि वहीं करोड़ों दर्शकों और प्रशंसकों का कहना है...?   खैर, अब मैं अपने बड़-बोलेपन का ज्यादा इस्तेमाल ना करते हुए यही कहना चाहूंगी कि हर खेल में किसी एक की ही जीत निश्चित है, अगर आप और हम अपनी जीत को तहेदिल से अपनाते हैं तो अपनी हार को भी उतनी सहजता से अपना लेना चाहिए। अब ये कोई साधुवाद सोच नहीं, बल्कि सच है कि ‘‘जब आप अपनी हार किसी और के सिर मढ़ते हो तो सभी को पता चल जाता है कि कमी किसकी है और कहां पर है ?’’ क्यूँ  मैंने सही कहा ना ?  

05 अप्रैल, 2011

जनगणना ने दिए चिंता के नए आंकड़े...



देश में वैसे मुद्दे तो बहुत बड़े-बड़े हैं, जिनपर बात और बहस की जा सकती है। जैसे-वल्र्ड कप, भ्रष्टाचार, राजनीति मसले, कालाधन, आतंकवाद, गरीबी या शिक्षा। ये सभी अपनी जगह अहम है। लेकिन एक दूरगामी सोच का सफर तय किया जाए तो सबसे बड़ा मुद्दा इस समय भारतीय जनगणना का है। 2001 के बाद हुई 2011 की जनगणना थोड़ी हैरान करने वाली है। भारतीय विकास के आधुनिक दस साल में इस बार फिर देश की सोच औेर शिक्षा के दर्शन करने को मिले हैं। बीते मार्च की आखिरी तारीख को भारतीय जनगणना में बताया गया कि ‘इस बार भारतीयों की गिनती 1.21 अरब हो गई है।’ यानि बुलंद भारत की विशाल तस्वीर... वैसे भारत ने 2001 में 1 अरब़ से कुछ ही ऊंची जनसंख्या को पार करते हुए इन दस सालों में 18 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या का इजाफा किया। यानि सबकुछ दुरूस्त है, मतलब 1991 की गणना में जनगणना में लगभग 23 प्रतिशत की वृद्धि नोट की गई थी, जबकि 2001 में 21 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई थी।
  वैस विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार 17 फीसदी की वृद्धि के साथ भारत की 1.21 अरब की आबादी है जोकि की आंकड़ों के मद्देनजर कुछ कम भी नहीं है क्योंकि अमेरिका, इडोनेशिया, ब्राजील, पाकिस्तान और बांग्लादेश की कुल आबादी को अगर मिला दिया जाए, तो भी भारत की आबादी इस संख्या से ज्यादा है। मगर संतुष्टि इस बात की है कि इस बार भारतीय लोगों में कुछ हद तक जागरूकता तो जरूर आई है तभी तो इस बार छोटा ही सही लेकिन दो दशकों में बढ़ी जनसंख्या के बाद भी वृद्धि का प्रतिशत कुछ कम ही हुआ है।
  मगर अफसोस है कि जहां जनसंख्या का प्रतिशत कम रहने से जागरूकता के आयाम भारतीय जनता के बीच देखने को मिले हैं वहीं दूसरी और घटते लिंग अनुपात ने चिंता की नई वजहों को जन्म दिया है। मतलब, बढ़ती जनसंख्या में लड़के और लड़की के अनुपात (लिंगी अनुपात) में काफी अंतर देखने को मिला है। अभी तक यह संतुष्टि जताई जा रही थी बेशक छोटा फर्क ही सही, लेकिन बढ़ी जनसंख्या में कम वृद्धि होना शुभ संकेत तो है, जबकि लिंग अनुपात की गड़बड़ाती गिनती ने भारतीय समाज की उस छोटी और अमर्यादित सोच का भी खुलासा किया है, जो आज भी लड़कियों को पैदा होने से पहेले ही खामोश कर देती है। सूत्रों के मुताबिक, पिछली जनगणना में जहां 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या 933 थी, जो इस दशक में 1000 पुरूषों पर महिलाओं की संख्या घटकर 914 है। इन आंकड़ों को महज साधारण आंकड़ें कहकर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता, क्योंकि भारतीय समाज के वरिष्ठ विद्वानों का मानना है कि इस तरह से लिंग अनुपात भारतीय समाज में कई प्रकार के अपराधों को विकराल बना सकता है, एक ओर तो पहले से ही समाज में लड़कियों को बोझ समझकर उन्हें दुनिया में ‘ना लाना’ बड़ा अपराध है, फिर उस पर लड़कियों और महिलाओं को लेकर रोज-रोज होते अपराधों में निश्चित तौर पर वृद्धि होगी ही। मूल रूप से कहा जा सकता है कि भारत में बेशक दो दशकों में जनसंख्या का आंकड़ा गिरा हो लेकिन, लिंगानुपात का आंकड़ा गिरने से महिला जगत से जुड़े अपराधों की गिनती बढ़ायेगा ही...