12 नवंबर, 2010

‘संदेश’ में झलकते संदेहजनक नहीं ‘सच्चे’ हालात

आज के भागते और विकास करते भारत के लिए हर तारीफ कम है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप बनाए हुए है। यहां की संस्कृति और रिवाजों की दुनिया भर में मिसाल दी जाती है। मगर यह सिक्के का एक पहलू है जिस पर हम गर्व करते हैं जबकि इसका दूसरा पहलू कुछ अलग है जिन्हें महज कुछ ही पंक्तियों मेें सहज ही बयां कर सकते हंै कि बेशक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘संदेश’ देने के लिए ‘भारत’ को  उदाहरणार्थ लिया जाता रहे, लेकिन कभी मात्र कुछ लाइन के मोबाइल ‘संदेश’ में पूरे भारत की ‘वो असली तस्वीर’ बनकर तैयार हो जाती है। जिसके भद्दे रंग उस हर चमकती रंगत को धूमिल कर देते हंै, जिसपर आप और हम घमंड करते हैं। वाकई गौर करने वाली बात है कि क्या ‘ये भारत की उज्जवल तस्वीर’! जहां कार लोन 8 प्रतिशत के ब्याज पर मिलता है और एजुकेशन लोन 12 प्रतिशत का ब्याज दर से लेना पड़ता है? मतलब यहां विलासता,  विद्या पर हावी है। मेरा भारत महान है कि यहीं पर दाल-चावल 80 रूपए किलो मिल रहा है और मोबाइल सिम सिर्फ 10 रूपए में खरीदी जा रही है? जाहिर है कि यहां भी सबसे मूल जरूरत का कोई मोल नहीं। क्या दुरूस्त व्यवस्था है कि पिज्जा डिलीवर 30 मिनट यानी अपने टाइम लीमट में हो जाता हैै, जबकि पुलिस और एंबुलेंस कभी वक्त पर नहीं पहुंचती? क्या जागरूकता है कि चाय की दुकान पर बैठकर आप और हम कहते हंै कि बाल श्रम कराने वालों को सूली पर चढ़ा दिया जाना चाहिए और दूसरे ही पल कहते हैं कि छोटू दो चाय तो ला? इसी देश में सानिया-शोएब की शादी मीडिया में हफ्तों तक सुर्खिंया बटोरती हैं, जबकि नक्सलियों के कहर की कहानी चंद मिनटों में सिमट जाती है? इसी अमानवीयता के चलते पांच सालों में करीब 11 हजार लोगों ने नक्सली हमलों में अपनी जान गवाई है। यही हाल है भारत का! शब्दों का हेरफेर करें या इस लाइनों को छोटा कर दें, पर इससे भारत की बद्सूरत तस्वीर में दिखती कल की तकदीर को बदला नहीं जा सकता। ऐसे ना जाने कितने ही उदाहरणों की चर्चा की जा सकती है कि सात मुख्य बड़ी नदियों के देश में करीब डेढ़ लाख गांव पीने के पानी के लिए तरसते हैं, कृषि में अव्वल देश में करीब साढ़े छह लाख गांव है जिनमें से करीब 72 प्रतिशत गांव के किसान अपनी खेती के लिए केवल बारिश के पानी पर निर्भर रहते हैं। 20 करोड़ गरीब जनता की दशकों से 50-70 रूपए की मामूली दैनिक आय नहीं बढ़ी, लेकिन सांसदों की औसत सम्पत्ति 1.87 करोड़ से बढ़कर 5.33 करोड़ जरूर हो गई है। लेकिन गरीबी का आंकड़ा हाल की 1.50 करोेड़ गरीब लोगों की बढ़ोत्तरी के साथ मालामाल है अब ताजे अनुमान के मुताबिक करीब 40 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे है, जबकि सत्ता का खेल खेलने वाले सांसदों का एक बड़ा प्रतिशत करोड़पति है।
  बच्चों को कल का नेता कहना तो सबको अच्छा लगता है, लेकिन सच तो हकीकत से परे है क्योंकि देश के 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के अधिकार से महरूम है, करीब दो करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों में काम कर रहे हैं और एक सरकारी अनुमान के अनुसार, देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख है। जबकि एक नीजि संस्था के स्वतंत्र अनुमान के अनुसार, अगर स्कूल के बाहर सभी बच्चों को बाल श्रम समझा जाएं तो करीब 10 करोड़ से ज्यादा का आंकड़ा बैठता है। अब इसी से अनुमान लगया जा सकता है कि देश के कितने बच्चे गरीबी के चलते स्कूल नहीं जा पाते हैं। भूखे पेट करवटें बदलने वाली करोड़ों गरीब जनता के देश में लाखों टन अनाज लापरवाही की भेंट चढ़ा दिया जाता है, बात जयपुर, उदयपुर और गाजियाबाद की ले लीजिए। कहीं अनाज के गोदाम को मयखाना बनाने के लिए अनाज को बाहर निकाल फेंका दिया,  तो कहीं बेहद लापरवाही के चलते बारिश में करोड़ों रूपए का अनाज एकदम बेकार हो गया!
बहरहाल, इन सब लापरवाही और गलत दिशा में होते विकास पर बस अफसोस ही जाहिर किया जा सकता है क्योंकि हमने अपनी जागरूकता को त्याग रखा है। वैसे भी जागरूकता का कोई संगठित मापदंड भी नहीं रह गया है, क्योंकि सबको अपनी-अपनी डबली और अपना-अपना राग ही सुहा रहा है। एक तो देश की राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर ताने कसने से बाज नहीं आती है और दूसरी ओर आम जनता महंगाई के साथ-साथ और समस्याओं को लेकर रोती रहती है। बस, ऐसे ही सब चल रहा था और चल रहा है और चलता रहेगा? क्योंकि जब देश के हालात आजादी के समय से लेकर अब तक नहीं बदले। बल्कि 62 सालों में जमीनी विकास बद् से बदतर हो गए हैं तो भविष्य में इन्हें बदलने की कोई उम्मीद नहीं लगाई जा सकती!  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें